शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

सपनों के लिए ....!!!



सुबह तो कबकी हो गई
सूरज चढ़कर ढल चुका
रात भर भटकता रहा
सपनों की दुनिया में
तड़के ही सो सका है
रात जब लेटा था
तो ऐसे लग रहा था
जैसे कोई सड़क पर पड़ा
दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति हो
ऐसे तो प्रतीत होता है
एक समूचा इंसान है
लेकिन सहानुभूति के
सूक्ष्मदर्शी निरीक्षण से
साफ़ दिखाई देता है
यह आदमी नहीं है
ये तो एक सड़क है
जिस पर बेतरतीब बिखरी हैं
धूल और गिट्टियां
रौंदकर गुजर जाते जिसे
आते-जाते वाहन
थरथरा उठता है
उसका रोम-रोम
रह जाता है तो
सिर्फ  ……।
तेज़ रफ़्तार से उठता
हाहाकार......... !
ह्रदय को झकझोरता
बावजूद इसके सो गया वह??
चिड़ियों के कलरव से क्या होगा
ढेर सारे टूटे सपनों का बोझ
अपने सर पर लादे
जब नींद खुली थी तो न सपने थे
न जीवन के वे पल
जो बीत गए उन्हें देखने में
जो जागृत होगा
वो सपने कैसे देखेगा
और सपने देखने के लिए
नींद का होना जरुरी होता है न..... ?
अभी तक सोया है वह.......

शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

दर्द...!!!


भरोसे के छल में लिपटे 
जितने तीर थे
वक़्त के तरकश में
सारे के सारे
छोड़े जा चुके
वज़ूद की पीठ पर
छलनी हो चुके
तार-तार हो चुके
भोले-भाले वज़ूद को
इतनी आदत सी हो गई है
इन छली तीरों की
यदि दर्द ना मिले
तो दर्द होता है
ऐसा लगता है
जैसे ये जख्म नहीं रहे
दवा हो गए हों...

गुरुवार, 14 नवंबर 2013

फूलों के मौसम में...


.
शाम अभी ढली नही
सुबह अभी हुई नही
आओ करें इंतज़ार 
गुनगुनी सी धूप में
ठंडी-ठंडी बयार का
ढलती हुई शाम का
धुंधली सी सुबह का
रूठी सी चांदनी में
खोये से चाँद का
फूलों के मौसम में
झूमती बहार का...

गुरुवार, 7 नवंबर 2013

यादें हर सांस में...


यह सोचे बगैर कि
जब कोई सवाल करेगा
निरुत्तर हो जाउंगी
लिख लेती हूं तुम्हारी यादों को
रख लेती हूं संदूक में तह लगा
रेशमी अहसासों को
कि वक़्त की बुरी हवा न लगे कभी
सहेज ली है एक याद आज
इत्र की खूबसूरत सी शीशी में
कि जब भी चाहूँ
तुम बिखर जाओ मेरे जीवन में
खुशबू की तरह
घुल जाओ मेरी हर सांस के साथ
गमक उठे
मन प्राण आत्मा
रोम-रोम पर छाई मधुर गंध
सांसों में घुल जाए
बन जाए 
हरियाली जीवन की
अमर हो जाये प्रीत
गगन - धरा सी 
धरातल पर.......

गुरुवार, 24 अक्टूबर 2013

कहो कछु गलत तो नईया ???

अजब जमानो आयो रे भैया
मंहगाई ने कराओ ता थैया
सस्ता मोबाईल मंहगा तेल
चल रओ मनरेगा को खेल
खुद की भर गई सारी जेब
दब गए हैं तुमाए सारे ऐब
सूखे में डूब रही हमाई नैया
अजब जमानो आयो रे भैया

नौ सिलेंडर में काम चलाएं
नहीं चले तो झांझर बजाएं
नई तो न्यारो कर लो चूल्हा
ब्याव कराए बनके दुल्हा
अब काय काट गई ततैया 
परीक्षा लेय रही तुमाई मैया
मंहगाई ने कराओ ता थैया
अजब जमानो आयो रे भैया

हमाई बिनति सुन लो दाता
हमाओ सदाई है तुमसे नाता
चाहे रखो भिखारी हमको
चाहे तुम कर देवो धनवान
मध्यम श्रेणी में ना रखिओ
तुम दयालू हो किरपा निधान
नई तो हो जाहे हाय दैया दैया 
अजब जमानो आयो रे भैया

नेता तुमाई तो चाँदी चाँदी
नौकर चाकर रक्षक बाँदी
कितनई बड़ो घोटालो करो
सात पीढी को माल घर भरो
काटो थोड़े दिन की जेल
कछु दिन मे हो जाहे बेल
सब खेल करावे है रुपैया
अजब जमानो आयो रे भैया

खुद के बाल बिदेश पठाए 
वे सब अंग्रेजी में रोवे गाए
तुम सदा के चार सौ बीसी
लुगाई ने लगा लई बत्तीसी
देशी घोड़ी चले पूरबी चाल
जनता को अंदर करो माल
लूटो कह हिन्दी मोरी मैया
कहो कछु गलत तो नईया???

सोमवार, 21 अक्टूबर 2013

आ जाओ चाँद... संध्या शर्मा

उषा की लाली संग 
अंगना रंगोली सजाकर 
घर का कोना -कोना 
स्नेह से महकाकर 
रसोई के सारे काम 
जल्दी से निबटाकर 
सोलह सिंगार कर
अक्षत, चन्दन, फूल
केसर, कुमकुम से 
भरी थाल सजाकर
संध्या की मधुर बेला 
पुकारूंगी तुम्हे चाँद
जब पलकें बिछाए 
करुँगी साथ उनके 
तुम्हारा भी इंतजार 
बादलों  की ओट में 
चुपके से छिप जाओगे   
लजाओगे शरमाओगे 
कुछ पल  सताओगे 
तुम भी जानते हो 
मेरे का मन का हाल  
क्योंकि उनकी तरह
तुम्हे भी है मेरा ख्याल
लेकिन जानती हूँ मैं
हौले से मुस्कुराकर 
आ ही जाओगे तुम ....
 
 सौभाग्य और ऐश्वर्य के पर्व 'करवा चौथ' की हार्दिक शुभकामनाएं ....

रविवार, 20 अक्टूबर 2013

एक प्रश्न....


ईंट - पत्थरों ने
मुझसे एक प्रश्न किया
यही है तुम्हारी जात ?
यही है तुम्हारा धर्म ?
तुम जैसे जीवों से
हम निर्जीव भले?
बिना भेद-भाव के
पड़े रहते हैं राह में
जीवन भर खुद को घिसते
राह पर बिछकर
सबको सहारा देते
अपने ईमान पर अडिग
आज तक खोजती हूँ
उस प्रश्न का उत्तर
शायद मिल जाए कहीं
मिलेगा एक दिन
इसी आशा से....

मंगलवार, 15 अक्टूबर 2013

आम खबर


ख़बरों का अम्बार
ख़बरों भरा अखबार
कहीं नरसंहार
कहीं बलात्कार
पुलिस का अत्याचार
अधिकारियों का भ्रष्टाचार
नेताओं के हथकंडे
सुरक्षा बलों के डंडे
संवाददाताओं के पुलिंदे
रतजगे उनींदे
रेल बस की लेटलतीफी
मध्यम वर्ग की मज़बूरी
पक्ष की घोषणाएं
विपक्ष की आलोचनाएँ
मंत्रियों के दौरे
आश्वासनों के सकोरे
वादों के कुल्हड़
दावों पर हुल्लड़
रसोई गैस-पेट्रोल का अभाव
उस पर बढ़ते भाव
आम आदमी परेशान
महंगाई से हलाकान
सायकिल ओंटते हुए
पेट में भूख की जलन
अवसाद से भरा मन
मारा जाता है एक दिन
स्विस बैंक की रफ़्तारी
चपेट में आकर
बन जाता आम आदमी
अखबारों की खबर....!

सोमवार, 7 अक्टूबर 2013

जन-सेवा...

सरकारी अस्पताल की
खाली कुर्सी देख कर
उठा एक सवाल
नेता - अफसर ही क्यों
काट रहे बवाल
इनको भी तो अपना-अपना
सुनहरा कल गढ़ना है
जो नारों पे जीते हैं
उन्हे नेता बनना है
सामने की कुर्सी मंत्री की
पीछे पर अफसर को जमना है
चोर-चोर मौसेरे भाईयों को
मिल-जुल जन धन हड़पना है
जनसेवा के नाम पर
नेता मांगता फ़िरे है वोट
जन कल्याण के नाम पर
अफसर बटोर रहे हैं नोट
फिर यह डॉक्टर ??
नेता - अफ़सर का युग्म
सामने की कुर्सी खाली रख
जनता को लुभाता है
पीछे की कुर्सी पर बैठ
कल सुनहरा बनाता है
देश का हर नागरिक
इनसे कुछ गुण अगर सीखे
तो देश को कभी सुनहरे कल की
चिंता नहीं सताएगी
हर नागरिक पीछे की कुर्सी से
जनकल्याण बटोरेगा
सामने की कुर्सी नेता को
'जनसेवा' खातिर 
खाली मिल जाएगी….

सोमवार, 23 सितंबर 2013

मीडिया चौपाल से लौटकर... संध्या शर्मा


मध्यप्रदेश विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद और स्पंदन संस्था की ओर से भोपाल में १४-१५ सितंबर को दो दिवसीय राष्ट्रीय मीडिया चौपाल का आयोजन किया गया , जिसमे  देशभर से करीब १४५ मीडियाकर्मी , ब्लॉग एवं सोशल मीडिया से जुड़े लोग शामिल हुए ।  'जन-जन के लिए विज्ञान और जन-जन के लिए मीडिया' इस चौपाल का मुख्य विषय था. चौपाल की शुरुआत उद्घाटन समारोह से हुई। सबसे पहले दीप प्रज्‍ज्‍वलन किया गया एवं इसके बाद वैज्ञानिक मनोज पटेरिया, विज्ञान और प्रोद्योगिकी संस्थान के निदेशक प्रो. प्रमोद वर्मा, वरिष्ठ पत्रकार रमेश शर्मा, वेबदुनिया के संपादक जयदीप कर्णिक, वरिष्ठ पत्रकार गिरीश उपाध्याय एवं पुष्पेंद्र पाल सिंह को स्मृति चिन्‍ह भेंट कर उनका सम्मान किया गया। उद्घाटन समारोह का संचालन स्पंदन संस्था के अनिल सौमित्र ने किया।  चौपाल के आयोजन का मुख्य उद्देश्य विकास में मीडिया की सकारात्मक भूमिका को बढ़ावा देना था।  
 
दो दिन में विभिन्न चर्चा सत्रों में नया मीडिया, नई चुनौती, आपदा प्रबंधन और नया मीडिया और आमजन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास और जनमाध्यम जैसे विषयों पर चर्चा की गई. इसके अलावा आपदा प्रबंधन, एकता-अखंडता, विकास और लोकहित में सोशल मीडिया की क्या जिम्मेदारी है भी चर्चा के विषय थे।  
चौपाल में चर्चा सत्र की शुरुआत 'नया मीडिया, नई चुनौतियां' से हुई। उसके बाद आमजन में वैज्ञानिक दृष्टि के विकास और जन माध्यमों की भूमिका पर चर्चा की गई। इस सत्र में वरिष्ठ वैज्ञानिक मनोज पटेरिया ने कहा कि वर्तमान में मीडिया में विज्ञान की खबरों को पर्याप्त स्थान नहीं मिल पा रहा है। अगर हमें लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करना है तो विज्ञान की खबरों को भी महत्व देना होगा।  माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति बीके कुठियाला ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन के दौरान वैज्ञानिक दृष्टिकोण का आम जीवन पर महत्व पर जोर देते हुए कहा कि न्यू मीडिया इस क्षेत्र में व्यापक योगदान देने की क्षमता रखता है, इसके लिए मीडिया और वैज्ञानिकों को मिलकर प्रयास करने होंगे। उन्होंने ग्रामीण स्तर पर सोशल मीडिया के प्रचार-प्रसार और महत्व पर भी प्रकाश डाला।  

'आपदा प्रबंधन और नया मीडिया ' पर आधारित चर्चा में मुख्य वक्तव्य वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. सुबोध मोहंती ने दिया,  आपदाओं से निबटने के लिए मीडिया और सोशल मीडिया की अहम् भूमिका पर अपने विचार प्रकट किये। उन्होंने कहा हमारा भारतीय उपमहाद्वीप आपदाओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है, यही आपदाएं दर्शाती हैं कि हमारा ग्रह पृथ्वी एक जिंदा ग्रह है। हमें इन आपदाओं के साथ सामंजस्य बिठाकर जीना सीखना होगा, क्योंकि प्रकृति पर कभी किसीका नियंत्रण न रहा है न कभी होगा। उत्तराखंड में आई विभीषिका के दौरान न्यू मीडिया के द्वारा किए गए कार्यों पर चर्चा की गई और उन्हें भविष्य में बेहतर बनाने के प्रयासों पर जोर दिया गया। केदारनाथ त्रासदी के बाद से सोशल मीडिया के महत्व को नकारा नहीं जा सकता, इसके प्रयोग के ऐसे बहुत से सकारात्मक परिणाम हमारे सामने आए हैं, जो किसी और माध्यम से असंभव थे. मौजूद पत्रकारों ने उन समस्याओं के बारे में बताया, जो उन्हें आपदाग्रस्त इलाकों की खबरों को कवर करने के दौरान सामने आती हैं और उनका हल तलाशने एवं ऐसी जगहों पर जाने के बाद स्वयं व आपदाग्रस्त लोगों को जान की सुरक्षा हेतु तकनीकी ट्रेनिंग देने पर जोर दिया। 

ब्लॉगिंग पर भी कई विषयों पर चर्चा की गई, जो अंत में आत्मनियमन पर समाप्त हो गई , ब्लॉगिंग आज इतना व्यापक रूप ले चुकी है जिसे भाषा, विधा जैसी किसी भी सीमा में बांधना फ़िलहाल तो एक असंभव कार्य है।   
 
अनिल सौमित्र जी ने कहा कि सारे प्रयास इसलिए हैं कि वेब मीडिया के संचारकों की क्षमता में बढ़ोतरी हो और वे सशक्त हों, ताकि इसका लाभ मीडिया के अन्य क्षेत्र के लोगों को भी मिले और समाज के विकास और सशक्‍तीकरण में भी नए मीडिया की भूमिका स्पष्ट हो सके।

मुख्य मुद्दे रहे : भारतीय भाषाओं के साथ गूगल का भेदभाव, वेबपत्रकारों को सरकारी मान्यता, आर्थिक प्रारूप कैसे विकसित हो, सहज विज्ञापन कैसे मिले आदि।  इन सब विषयों पर सरकार तक जाकर अपनी बात रखने की बात कही गई।  

इस तरह मीडिया चौपाल ने न्यू मीडिया को नई दिशा देने में सार्थक कदम बढ़ाया हैजो भविष्य में न्यू  मीडिया की दिशा एवं दशा तय करेगा। 

शनिवार, 7 सितंबर 2013

मंज़िल ...संध्या शर्मा


मैंने तुम्हे कभी नहीं लिखा
तुम खुद लिखते गए
शब्द - शब्द
बनते गए गीत
जन्मों की प्रीत का
अहसास जीत का
उत्साह जीने का
जिसने मुझे 
हौसला दिया
आगे बढ़ते जाना है
एक कसम जिसे
हमेशा निभाना है
रुकना नहीं
चलते जाना है
हारना नहीं है
जीत जाना है
मैंने तय किया है
इस गीत को
गुनगुनाना है

यकीं न हो तो तुम खुद सुन लेना ……

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

लहराओ तिरंगा...

स्वतंत्रता दिवस के पावन पर्व पर हार्दिक शुभकामनायें.....
 
देश का मुकुट हिमालय, सागर माथा अति पावन
गंगा जमना की धरती ये, संस्कृति लोक लुभावन
पुरवाई से महकती माटी,चंदन गंध सी मनभावन
सागर चरण पखारे इसके,झूम झूम के गाता सावन
रंग बिरंगे फ़ूल खिलते हैं,ॠषियों की धरती पावन
वीरों ने धूल चटाई सब को,काल यवन हो या रावन
जन्मे राम कृष्ण हैं यहाँ, धरती है यह अति पावन
अंग्रेजों की घोर गुलामी से, लड़ के आजादी पाई
देश धर्म रक्षा खातिर, वीर शहीदों ने जान गंवाई
स्वतंत्र हुए हम भारत वासी मिल जुल पर्व मनाओ
हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई मिलके तिरंगा लहराओ
देश का मुकुट हिमालय, सागर माथा अति पावन
गंगा जमना की धरती ये, संस्कृति लोक लुभावन

सोमवार, 12 अगस्त 2013

मैं स्कूल कैसे जाऊं ???

कल ऐसी बरसात हुई, हर तरफ सिर्फ पानी ही पानी. नदी के किनारे है मेरा घर. घर की छत का कोना तक दिखाई नहीं दे रहा था. मैंने खुद अपनी आँखों से कई आदमी, जानवर सामान सब कुछ बहते देखा. माँ को घर छोड़ने के वक़्त सिसकते देखा. छोटा भाई जो खुद को सँभालने लायक नहीं है. पानी में रास्ता दिखा रहा था. पिताजी ने दादी को पीठ पर लाद लिया और हमने घर छोड़ दिया. रात भर की बारिश ने सब कुछ भिगो दिया, घर की दीवारें, छत की टीन सबकुछ आँखों के आगे बह रहा था. क्या पकड़ें क्या बह जाने दें?? किसीको भी सूझ ही नहीं रहा था. सामान से जीवन कीमती समझ उसे ही बचा लिए .

इस साल पहली बार पिताजी ने ज्वारी के बदले गेहूं खरीदा था. हमारे लिए स्कूल की नयी पोशाक सिलाई थी, हाँ... माँ को एक रेशमी साडी भी दिलाई थी, जिसे माँ ने मौसी की शादी में पहनने के लिए रखी थी, सब कुछ कीचड में मिल गया. गेहूं का एक दाना तक नहीं बचा . घर में सिर्फ कीचड ही दिखाई दे रहा है. ये देखिये मेरी किताबें, बस्ता कैसे हो गए. आप पूछ रहे थे न वहां भीड़ क्यों है? बंशी काका मर गए हैं सांप काटने से, उन्ही को देख रहे हैं लोग. मजदूरी के लिए अपना परिवार छोड़कर आये थे गाँव से. कल रात भोला काका के साथ शहर गए थे खेती का कुछ सामान खरीदने, वापसी में बाढ़ ने घर नहीं पहुँचने दिया दोनों पेड़ पर चढ़ गए लेकिन मौत ने बंशी काका का पीछा नहीं छोड़ा, पेड़ पर सांप ने डंस लिया उन्हें भोला काका ने गमछे से पेड़ से बाँध दिया था उन्हें। रात भर उनकी लाश के साथ रहने के बाद अभी उतारा है उन्हें वहां से. अब क्या होगा उनके परिवार का.

ना जाने कितनी जानें ले ली इस बाढ़ ने. नंदा चाची का का दो दिन का बच्चा उनकी गोद से छूटकर नदी के पानी में समा गया. वो देखिये कैसे पागलों की तरह अपने बच्चे को पानी में खोज रही हैं.  उधर देखो रमा काकी अपनी दो बेटियों के साथ अभी भी नाले के किनारे खडी काका के आने की राह देख रही है, कल शाम विकराल रूप धरे नाले को पार करने के लिए सबने मना किया था काका को, वे नहीं माने बोले "मेरी पत्नी दोनों बेटियों के साथ अकेले कैसे रहेगी इस बाढ़ में" और चले गए उन्हें हमेशा के लिए अकेला करके.

हरेक घर में बारिश ने अलग-अलग तरह से कहर ढाया है. बारिश तो थम गई है,  बाढ़ का पानी उतर गया. लेकिन हमारी आँखों की बारिश अभी भी थमी नहीं है.हम भूखे बेघर. कुछ भी नहीं बचा हमारे पास. आप कहते हैं मैं खूब  पढूं - लिखूं  अपना भविष्य उज्जवल बनाऊं लेकिन पहले यह तो बताइए ... मैं स्कूल कैसे जाऊं ??

बुधवार, 31 जुलाई 2013

सखी री! गुनगुनाऊँ, गीत एक गाऊँ...संध्या शर्मा

सखी री! गुनगुनाऊँ, 
गीत एक गाऊँ
अपनो के मेले मे,
कभी अकेले में,
एक पल मुस्कुराऊँ,
गीत एक गाऊँ
सखी री! गुनगुनाऊँ, गीत एक गाऊँ

बरखा की रिमझिम में,
फ़ुहारों की टिम टिम में,
पंख फ़ैलाए उड़ जाऊँ
झिंगुरों की छुनछुन में,
घुंघरुओं की रुनझुन में,
बांसुरी बन बन जाऊँ
सखी री! गुनगुनाऊँ, गीत एक गाऊँ

पायल की रुनझुन में
झरनों की कल कल में,
हरियाली चूनर सजाऊँ
चिड़ियों की चुन चुन में,
भौंरों की गुन गुन में,
भीगी भीगी सी लहराऊँ
सखी री! गुनगुनाऊँ, गीत एक गाऊँ

लता पात की मुस्कानों में,
दामिनी के आसमानों में,
सुनहरे गोटे जड़ाऊँ,
प्रात की मधुर वेला में,
अनुपम किरणों की छटा में,
स्वागत थाल सजाऊँ .
सखी री! गुनगुनाऊँ, गीत एक गाऊँ

सपनों के अपने गाँव में,
बरगद पीपल की छांव में,
पींगे खूब झुलाऊँ,
चम्पा की सुगंध में,
गुड़हल के मकरंद में,
बन के सुवास समा जाऊँ,
सखी री! गुनगुनाऊँ, गीत एक गाऊँ

धरती की धानी चुनरी पे, 
गगन की सुंदर कुरती पे,
चाँद सितारे जड़ाऊँ,
क्षितिज के छोरों में,
सरस सलिला के धोरों में,
एक नया जीवन पाऊँ .
सखी री! गुनगुनाऊँ, गीत एक गाऊँ

सावन की गोरी सी,
पनघट की अल्हड़ छोरी सी,
मैं मंद मंद मुस्काऊँ
आएगें सजना जब,
बोलेगें पायल कंगना तब,
मैं बिंदिया अब सजाऊँ
सखी री! गुनगुनाऊँ, गीत एक गाऊँ

शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

बरसे छंद घनघोर...संध्या शर्मा

मुझे क्या...?
 कब मेघ छाये
कब बरखा बरसे
चाहे यक्ष-प्रिया
मेघदूत को तरसे
मैं तो बरखा तब जानूं
जब भावमेघ कालिदास के
 उमड़-घुमड़ छाएं
शब्दों की अमृत बूंदें
झूम-झूम बरसे
भर जाये ताल-तलैया
मनभावन रागों की
गीत-ग़ज़ल की
निर्मल सरिता बहे
हरषे जियरा
नाचे मन मोर
लिख दो हरियाली
चहुँ ओर
गाऊं होकर
प्रेम विभोर
छंद कालिदास के
बरसे घनघोर...

सोमवार, 24 जून 2013

स्थायित्व पाना है...?... संध्या शर्मा

"बीत गई सो बात गई"
भरोसा न करना
इस कथनी पर
सिर्फ धोखा है
भूतकाल निश्चित
वर्तमान अनिश्चित
भविष्य में क्या होगा
न तुम जानो न हम 
जीवन समन्दर किनारे बने 
वर्तमान रुपी रेत के टीले को
भविष्य रुपी एक लहर 
पल में बदल देगी
समतल मैदान में
कैसे सुरक्षित रखोगे
अपने आप को
इस लहर के आवेग से?
एक दिन.... !
तुम्हे भी भूत होना है
स्थायित्व पाना है...?
वर्तमान के धरातल पर
मजबूती से खड़े होकर
भूतकाल से सीख लेकर
भविष्य की ओर
आशा से निहारो...!

गुरुवार, 6 जून 2013

व्याकुल पीड़ा ... संध्या शर्मा


....
कांक्रीट के जंगल में
अकेला खड़ा वटवृक्ष
भयभीत है...?
व्याकुल है आज
चौंक उठता है
हर आहट से
जबकि जोड़ रखे हैं
कितने रिश्ते - नाते
सांझ के धुंधलके में
दूर आसमान में
टिमटिमाते तारे
शांत हवा के झोंके में
गूंजता अनहद नाद
पाकर धरती का
कोमल स्पर्श
ना जाने क्यूँ
छलक उठे हैं
उसके मौन नयन...

शुक्रवार, 31 मई 2013

यादें बचपन की... संध्या शर्मा


बीती यादें उमड़ -घुमड़ के
आ रही रही हैं मेरे मन में
कैसे-कैसे वो दिन हैं बीते
क्या-क्या छूटा बचपन में
 

रोज सबेरे सूरज आता
स्वर्ण रश्मि साथ लिए
नंगे पैरों दौड़ते थे हम
तितलियों को हाथ लिए

गेंद खेलना, रस्सी कूदना
गीली रेत के घर बनाना
भरी दुपहरी छत पर जाना
भैया के संग पतंग उड़ाना

खुशबू से महकती रसोई
चूल्हे पे पकता भात-दाल
खुश होना जब धोती माँ
रविवार को रीठे से बाल
 

आंगन में चारपाई बिछौना
बारिश की बूंदों से भीगना
लेटे-लेटे कहानियां सुनना
हुई सांझ तो तारे गिनना


पेड़ों से झांकता हुआ चाँद
पीपल, नीम की ठंडी छाँव
गाय-बैलों के घुंघरू के सुर
हरी-हरी घास, धूल सने पाँव

हँसते खेलते दौड़ते भागते
पैदल चले जाना स्कूल
स्कूल की छुट्टी होते ही
खेल में हो जाना मशगूल
 

पल में हँसते पल में रोते
पल में होती खूब लड़ाई
पल में जाते हम सब भूल
यादें बचपन की रही छाई 

जाने कितनी बातें,यादें
बसी हैं मन के कोने में
जब छा जाएं आँखों में
घंटों लग जाते हैं सोने में

शुक्रवार, 24 मई 2013

बनो अग्रदूत..... संध्या शर्मा

चाहते हो ???
बगुलों के बीच

नीर-क्षीर विवेकी हंस होना
ग्रहों से परिक्रमित होते
प्रकाशित करते
सौरमन्डल के सूर्य की तरह
प्रतिपल चमकना
तो भेड़ प्रवृत्ति से प्रथक
जनसमूह का बनकर घटक
अनुगंता, अनुकर्ता  नहीं
अग्रदूत बनो
अस्तित्व को नई पहचान दो
आसान न सही
असंभव भी नहीं  
आकाश के अगणित तारों के मध्य
ध्रुवतारा होना....

रविवार, 19 मई 2013

लघु कथाएं... संध्या शर्मा

लघु कथा-1

दो निवाले सुख के
उन्हें रिटायर हुए एक बरस भी न हुआ था कि पत्नी साथ छोड़ गई, जमा पूंजी का कुछ हिस्सा उसके इलाज़ में और बाकी बेटों ने मजबूरियां, तकलीफें बताकर हथिया ली. आसरे के लिए रह गए तो सिर्फ पेंशन के गिने चुने पैसे. आजकल बहुओं को उन्हें दो वक़्त की रोटी खिलाना भी भारी पड़ने लगा है, हालत के मारे क्या करते आखिर उन्होंने खोज लिया "दोन घास सुखाचे" का मार्ग अर्थात सुख के दो निवाले पाने का स्थान एक छोटा सा होटल जो उनकी हैसियत के हिसाब से पेट भरने के लिए काफी है . कैसी विडम्बना है एक समय था जब उनकी आवभगत में पूरा परिवार लगा रहता था।
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लघु कथा - 2


दो बोल प्रेम के
बहु के पीछे-पीछे घूमते सुभद्रा कई दिनों से देख रही थी, वह धीरे-धीरे बहु को न जाने क्या कहती. कुछ इस तरह जैसे कोई छोटी बच्ची अपनी माँ से कुछ चाहती हो. आखिर क्या बात हो सकती है? सबकुछ तो है इनके पास, पति की पेंशन मिलती है, वक़्त पर खाना, सोना सारी सुविधाएँ हैं. आखिरी एक दिन मैंने सुन ली उनकी वह बात.। कह रही थी "मैं बहुत अकेली हूँ, ऐसा लगता है मुझे कुछ हो जायेगा, लेकिन जब तू मुझसे बात कर लेती है न तो मेरी सारी तकलीफ दूर हो जाती है, बहुत ख़ुशी मिलती है मुझे... तू माझ्या शी बोल न ग... बोल न...फ़क्त "दोन बोल प्रेमाचे"
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शनिवार, 4 मई 2013

जय हिन्द.... संध्या शर्मा

टूट चुका बाँध  
तबाही मची है
सब कुछ बह गया
कब तक सहोगे
अन्याय - अत्याचार
स्वाभिमान पर प्रहार
प्रतीक्षा कैसी??? 


पानी के बुलबुलों के आगे
तुम गंगा की जलधार
क्यों न तोड़ दो???
अपने धैर्य का बाँध
बह जाने दो टूटकर
एक बची-खुची सी
सिंद्धांत विहीन दीवार!!!!

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

रामरती...

चिड़ियों की चहचहाहट होते ही नींद से उठकर छुई खदान जाना और शाम ढले वापस आकर छुई-मिट्टी के एकसार ढ़ेले तैयार करके सुखाने के लिए रखना. यही दिनचर्या है उसकी. गर्मियों में काम दुगुना बढ़ जाता है, इन दिनों में और अधिक परिश्रम करके छुई इकठ्ठा करती है बरसात के लिए. चाहे कोई भी मौसम हो झुलसा देने वाली गर्मी हो, ठिठुरने वाली ठण्ड या फिर फिसलन भरी बरसात. काम तो करना है पेट की आग बुझाने के लिए. बारिश के दिनों में चिकनी सफ़ेद छुई खदान में जाना कोई आसान काम नहीं, जान हथेली पर रहती है. उसपर कुछ ज्यादा पैसे पाने की चाह उसे खदान में अधिक गहराई तक जाने को मजबूर कर देती. दो बरस पहले इस मजबूरी ने उसके सिन्दूर के लाल रंग को भी सफ़ेद छुई - मिट्टी बदल में दिया. अकेली रह गई है तब से एक मासूम बेटी के साथ. 
 
बस्ती के चूल्हे भी अब बहुत कम ही रह गए हैं मिट्टी के. नहीं तो पहले हर घर में मिट्टी के चूल्हे, सुबह - शाम के भोजन बनने के बाद रात को राख- लकड़ी को साफ़ करके छुई - मिट्टी से पुतकर सौंधी -सौंधी खुशबू से महकते थे. ना रहे वह पहले वाले गोबर से लिपे सुन्दर आँगन जिसके बीचोंबीच तुलसी के चबूतरे में दीपक जगमगाते थे, इसलिए आजकल जंगल से लकड़ियाँ भी चुन लाती है वह.
 
कई दिनों से मिट्टी और लकड़ियाँ बेचकर अपना पेट भरने वाली माँ-बेटी आधा - पेट भोजन कर सो जाती हैं, क्योंकि आधी लकड़ियों से घर के चारों ओर बाड़ बना रही थी वह बेटी की सुरक्षा के लिए. भूख उनके चेहरे पर साफ़ नज़र आ रही थी, मासूम का मुरझाया चेहरा माँ की तरह अपना दुःख छुपा नहीं सका.
 
कई दिनों बाद दोनों के चेहरों पर पहले जैसी शांति नज़र आ रही है. बेटी की सुरक्षा के लिए चिंता करती भोली माँ जान गई है कि भूखे रहकर जो सुरक्षा घेरा वह बना रही है, उन भूखे भेड़ियों के लिए कोई मायने नहीं रखता, इसलिए उसने आज बेटी को दे दिया है अपना लकड़ी काटने वाला हंसिया, और साथ में वह गुर जिससे वह काट कर रख दे अपनी ओर गलत निगाहें उठाने वाले का सिर. निश्चिन्त होकर गई रामरती। सिर्फ आज ही उन्हें सोना होगा आधा पेट क्योंकि अधपेट रहकर खरीदेगी एक नया हंसिया. आज की भूख उन्हें देगी भूख से मुक्ति और भूखे भेड़ियों से सुरक्षा.

मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

नवा - जूना...संध्या शर्मा

अरसे से 
ठसाठस भरा
अस्त-व्यस्त था
मन का  कमरा
आज समय मिला
नए - पुराने 

विचारों- भावों
रिश्ते-नातों
यादों-अहसासों को
झाड़-पोंछ
करीने से सहेजा
कुछ टीसती यादों को
बुहार बाहर किया 
खाली पड़े फूलदान में 

महकते अहसासों को सजाया 
बहुत जगह बन गई है
नयी उलझनों-सुलझनो को
दो पल सुस्ताने के लिए...

बुधवार, 17 अप्रैल 2013

सदा नीरा ...संध्या शर्मा


ना कोई डोर/
नातों की
ना कोई बंधन/
वादों का
फिर भी...
साथ चलते जाना
सदा नीरा के सिमटने से
मिलन का अहसास
पास होकर भी दूर होना
दो किनारे हैं...
तो क्या हुआ ???
अथाह है प्रेम पराकाष्ठा
तय है एक दिन
समन्दर होना....

शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

"युगे-युगे"... संध्या शर्मा

मिथ्या दंभ में चूर
स्वयं को श्रेष्ठ घोषित कर
कोई श्रेष्ठ नहीं हो जाता
निर्लज्जता का प्रदर्शन
निशानी है बुद्धुत्व की
सूर्य को क्या जरुरत
दीपक के प्रकाश की
वह तो स्वयं प्रकाशित है
फ़िर, प्रतिस्पर्धा कैसी?
है हिम्मत ....?
तो बन जाओ उसकी तरह
छूकर दिखाओ ऊँचाइयों को
जगमगाओ उसकी तरह
जिस दिन ऐसा होगा
स्वयं झुक जाओगे
फलाच्छादित वृक्ष जैसे
चमकोगे आकाश में
तारों बीच चाँद की तरह
कीर्ति जगमगाएगी
"युगे युगे" दसों दिशाओं में
यही है मृत्यु लोक में
वैतरणी से तरने का मार्ग....

बुधवार, 3 अप्रैल 2013

यायावरी को सार्थक करती पुस्तक "सिरपुर : सैलानी की नजर से"





सुप्रसिद्ध ब्लॉगर ललित शर्मा की पुस्तक "सिरपुर : सैलानी की नजर से" हाथ में आई तो पढते ही चली गई। सरल, सहज एवं प्रवाहमय शब्द शैली इसकी विशिष्टता है जो पाठक को अंत तक बांधे रहती है। पुरातत्व एवं इतिहास जैसे नीरस विषय को इन्होंने अपनी लेखनी से रोचक बना दिया। प्राचीन कोसल की राजधानी सिरपुर के यात्रा वृत्तांत को इन्होने अपनी पुस्तक के माध्यम से संजोया है। सैलानी की नजर से सिरपुर का वर्णन करते हुए कहीं ये नहीं लगता कि किसी यात्री को पढा जा रहा है, लगता है कि किसी पुराविद या इतिहासकार की कृति पढ रहे हैं। ऐसा इसलिए है कि इन्होंने विद्यार्थी जीवन से सिरपुर की यात्राएं कई बार की हैं। 

पुस्तक में इन्होंने यात्रा के दौरान घटित छोटी-छोटी बातो एवं घटनाओं पर भी सुक्ष्म दृष्टि डाली है। बस में मोबाईल पर बातें करती लड़कियाँ हो या सहयात्री का गोद में खेलने के लिए आतुर बच्चा। रायपुर से सिरपुर के बीच आने वाले अन्य दर्शनीय स्थलों के विषय में जानकारी देकर इस पुस्तक को महत्वपूर्ण बना दिया है। यात्री की मंजिल भले ही कहीं और हो पर वह रास्ते में होने वाली घटनाओं और स्थलों पर भी नजर रखनी चाहिए। पुस्तक में छत्तीसगढ़ की खेती किसानी के साथ संस्कृति की झलक देखने मिलती है। रास्ते में धान काटते किसान हों या दीवाली के बाद गाड़ा बाजा के साथ परम्परागत लोक नृत्य करते राऊत। सभी इस पुस्तक का हिस्सा हैं।

पुस्तक के प्रारंभ में वर्तमान सिरपुर नगर में उत्खनित स्थलों का नक्शा दिया गया है। जिससे सिरपुर आने वाले सैलानियों को दर्शनीय स्थलों की जानकारी सहज ही प्राप्त हो जाए। मूर्तियों के शिल्प के सारगर्भित वर्णन के साथ तत्कालीन शिल्पकारों की आर्थिक, सामाजिक दशा पर शोध प्रशंसनीय है। सिरपुर का प्राचीन नाम श्रीपुर था, वर्तमान गाँव का नाम सिरपुर है। इन्होने वर्तमान सिरपुर का भी गहन सर्वेक्षण किया है, जो वर्तमान की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। सर्वेक्षण में सरकारी कार्यालयों, स्कूलों के साथ सायकिल का पंचर बनाने की कि दुकानों का जिक्र है। जिससे पर्यटक को यह जानकारी मिलती है कि कोई भी गाड़ी पंचर होने पर आपातकाल में सिरपुर में पंचर बनाने की सुविधा भी उपलब्ध है।

किंवदंतियों के साथ सिरपुर भ्रमण रोचक बन पड़ा है इससे पता चलता है कि एक सैलानी की दृष्टि कहाँ तक जा सकती है। सुरंग टीला से प्रारंभ हुई सिरपुर यात्रा  लक्ष्मण मंदिर, राजमहल, नागार्जुन आचार्य निवास, स्वास्तिकविहार, पद्यपाणिविहार आनंदप्रभ कुटी विहार, सेनकपाट, जैन विहार, बालेश्वर शिवालय समूह, तीवरदेव महाविहार, सुरई-ससई विहार, किसबिन डेरा, बाजार क्षेत्र, गंधर्वेश्वर मंदिर,अरुणोदय स्तूप के साथ करबा-करबिन टीला में भूगर्भ में दबे हुए युगल मंदिर पर सम्पन्न होती है।

सिरपुर से पूर्व शरभपुर राजवंश की राजधानी शरभपुर थी, जिसका जिक्र व्हेनसांग अपने यात्रा वृत्तांत में करते हैं। यहाँ पर सैलानी की जिज्ञासु प्रवृति की झलक दिखाई देती है। सैलानी शरभपुर की खोज में बार-नवापारा के सघन वन में प्राचीन राजधानी की खोज में निकल पड़ता है। जंगल में भटकने बाद उसे कई नाले पार करके पहाड़ी पर सिंघन गढ  का किला मिल जाता है। वहाँ की स्थिति का वर्णन इन्होने बखूबी अपनी पुस्तक  में किया है। साथ ही खूर्द-बूर्द होती पुरातात्विक धरोहरों के संरक्षण के लिए चेताया है। धसकुड़ के झरने के साथ खैर के वृक्षों की छाल से कत्था बनानी वाली खैरवार जाति की जानकारी भी सैलानी की पैनी नजर की परिचायक है।

सिरपुर के स्मारकों, भौगौलिक स्थिति का वर्णन करते हुए शोधपूर्ण दृष्टि डालते हुए सिरपुर के पतन के कारणों के साथ परग्रहियों (एलियन) के आगमन का भी जिक्र पुस्तक का महत्वपूर्ण अध्याय है। सिरपुर के बाजार की आभासी सैर पढने से ऐसा लगता है कि हम हजारों वर्ष पीछे जाकर उस काल खंड का हिस्सा बन गए हैं। जैसे कोई टाईम मशीन से हमें महाशिव गुप्त बालार्जुन के काल की सैर करवा लाया हो। बाजार की सैर के दौरान मूर्तियों के शिल्प के साथ प्राचीन कोसल में स्त्रियों द्वारा धारण किए जाने वाले आभुषणों का अद्भुत वर्णन है।

पुस्तक के अंत में सिरपुर के संबंध में ब्लॉगर्स के द्वारा की गई टिप्पणियों को स्थान दिया गया। किसी भी पुस्तक में पाठकों की प्रतिक्रियाओं को प्रथम संस्करण में स्थान पहली बार दिया गया है। पुस्तक के कव्हर पर सिरपुर के उत्खनन में प्राप्त महत्वपूर्ण एवं विशाल स्मारक सुंरग टीला (पंचायतन मंदिर) को प्रमुख स्थान देने के साथ लक्ष्मण मंदिर एवं तीवरदेव विहार स्थित भूमि स्पर्श मुद्रा में स्थित बुद्ध प्रतिमा को मुख्यरुप से दर्शाया गया है। पुस्तक का कव्हर आकर्षक है तथा सामग्री भी नि:संदेह पठनीय एवं संग्रहणीय है। यह पुस्तक सैलानियों के साथ शोधकर्ताओं, विद्यार्थियों एवं आम आदमी के लिए भी बहुपयोगी है।

पुस्तक सिरपुर; सैलानी की नज़र से
लेखकललित शर्मा
प्रकाशकईस्टर्न विन्ड, नागपुर
मूल्यरुपये 375/- (सजिल्द)
कुल पृष्ठ – 99
रंगीन 10 पृष्ठ अतिरिक्त