सोमवार, 28 अप्रैल 2014

इतिहास लिख दो...


हमारे नाम ज़िन्दगी  हर सांस लिख दो,                      
रड़क रही जो सीने में वो फ़ांस लिख दो।

 मंज़िल जो हमसे अभी दूर बहुत दूर है,
ख्वाबों में मंज़िल का अहसास लिख दो।

गुंचा-ए-गुल खिला अबके इस गुलशन में,
राहे सफ़र में अपना हर ख्वाब लिख दो।

नज़्म,  ग़ज़ल, अफ़सानों की रवायत है,
वक्त भी पढे जिसे कुछ खास लिख दो।

कान में चुपके से सरसराती हवा ने कहा,                                      
इस घने अँधेरे में तुम उजास लिख दो।

याद रखे सदियों तक ये जमीं आसमां,
चलो कलम उठाओ इतिहास लिख दो।

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

अनवरत आशा....



घंटाघर की घड़ियों को
बड़े गौर से देखते हुए
एक बुज़ुर्ग से
मैंने जानना चाहा
उनकी उत्सुकता का कारण
तो वे मुस्कुराते हुए बोले
छियासठ बरस हो गए
आशा - विश्‍वास जल से सींचते
मेरी आशा के मुरझाते बिरवे में
एक कोंपल फूटी है
हो न हो  .......
मेरे जीवन के अंत तक बदल जाए
उम्‍मीद पर तो दुनिया कायम है
और चल दिए मुस्कराहट बिखेरते
गुनगुनाते हुए वही पुरानी सी कविता
"घंटाघर में चार घड़ी 
चारों में जंजीर पड़ी
जब-जब घंटा बजता है
खड़ा मुसाफिर हँसता है"
वो सुबह कभी तो आएगी ……।

रविवार, 6 अप्रैल 2014

धुंधकारी...



 
सोचो जरा  
उन्हें भी तो चाहिए 
उगते सूरज की
उजली किरणें 
शोषण से मुक्ति 
अपने बनते हो न 
चलो तुम्ही बताओ 
किस श्रेणी में रखूं तुम्हे
शोषक या शोषित 
कभी मौन होकर 
देखते हो उन्हें 
तिल-तिल जलते 
कभी घमंड बोलता है 
तो कभी काले फीते 
कभी सुनाई दे जाते 
लाल झंडे के गीत 
इन सब के बीच 
चुक जाती है
धीरे - धीरे...!!!
आम इंसान की
रेंगती सी ज़िंदगानी 
प्रश्न उठता है  ....
होगा क्या …?
शोषितों के हित में 
व्यवस्था परिवर्तन ??
व्यक्ति परिवर्तन??
या फिर से सुनाई देगा 
कुछ समय बाद 
वही पुराना राग 
जलने वाला जलेगा 
और जलाने वाला 
सरकाता रहेगा  
गीली लकड़ियाँ
धुंधकारी होकर ………