चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को 'गुड़ी पाड़वा' या नववर्ष का आरम्भ माना गया है। ‘गुड़ी’ का अर्थ होता है विजय पताका । इसे हिन्दू नव संवत्सर या नव संवत् भी कहते हैं। कहा जाता है कि ब्रह्मा ने सूर्योदय होने पर सबसे पहले चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को सृष्टि की संरचना शुरू की। उन्होंने इसे प्रतिपदा तिथि को प्रवरा अथवा सर्वोत्तम तिथि कहा था। इसलिए इसको सृष्टि का प्रथम दिवस भी कहते हैं। पूरे भारत में इसी दिन से चैत्र नवरात्र की शुरूआत होती है।
कहा जाता है कि शालिवाहन नामक एक कुम्हार के लड़के ने मिट्टी के सैनिकों की सेना बनाई और उस पर पानी छिड़ककर उनमें प्राण फूँक दिए और इस सेना की मदद से शक्तिशाली शत्रुओं को पराजित किया। इस विजय के प्रतीक के रूप में शालिवाहन शक का प्रारंभ हुआ। एक अन्य मान्यता है कि इसी दिन भगवान राम ने बाली के अत्याचारी शासन से दक्षिण की प्रजा को मुक्ति दिलाई। बाली के आतंक से मुक्त हुई प्रजा ने घर-घर में उत्सव मनाकर ध्वज (ग़ुड़ियां) फहराए। आज भी घर के आंगन में ग़ुड़ी खड़ी करने की प्रथा महाराष्ट्र में प्रचलित है। इसीलिए इस दिन को 'गुड़ी पाड़वा' नाम दिया गया।
महाराष्ट्र में यह पर्व 'गुड़ी पाड़वा' के रूप में मनाया जाता है। घरों को स्वच्छ करके आम की पत्तियों के बंदनवार से सजाया जाता है। सुबह-सुबह गुड़ी या गुढ़ी में एक लम्बे बांस को रेशमी वस्त्र से सजा कर , उसके सिरे पर चांदी या पीतल का छोटा गिलास या लोटा बांधा जाता है और फिर उसे पुष्पहार, गाठी(शक्कर की मीठी माला) व नीमपत्र से विभूषित कर उसकी पूजा करके घर में बनाये गए पकवान नैवैद्य स्वरुप अर्पित किये जाते हैं, ऐसा करने के पीछे इस पुण्य अवसर पर प्रतीक स्वरूप देवालय की प्रतिष्ठा करने का ही भाव प्रकट होता है। रेशमी वस्त्र पताका का प्रतीक भी है। दण्ड और उसके शिखर में मंदिर की उच्चता और गुरुता का भाव है। बांस के शिखर पर बंधा लोटा मंदिर के कलश का प्रतीक है। खुले आँगन या ऊंचाई पर इसे बांधने के पृष्ठ में सर्वकल्याण और सूर्योपासना का भाव प्रतीत होता है। शाम को सूर्योदय होने से पहले गुड़ी को उतार लिए जाने की प्रथा है। महाराष्ट्र में इस दिन खास तौर पर श्रीखण्ड व पूरन पोली या मीठी रोटी बनाई जाती है।
यदि हम प्राकृतिक सौंदर्य पर नज़र डालें तो चैत्र वैशाख यानी वसंत ऋतु में जंगली वृक्षों पलाश, सेमल, गुलमोहर आदि में नई कोंपले फूटती दिखाई हैं। इन वृक्षों की डालियाँ फूलों से इस तरह लदी होती हैं, जैसे किसीके स्वागत में भव्य तोरण - द्वार सजे हैं. जबकि कोई भी इनकी देखरेख नही करता। इनका विकास प्रकृति की जिम्मेदारी होती है। इसलिए वसंत ऋतु को पहली ऋतु और कुदरत के सृजन का प्रतीक माना जाता है, तथा इस वसंत का शुभारम्भ माना जाता है 'गुड़ी पाड़वा' से।
भारत भर के सभी प्रान्तों में यह नव-वर्ष विभिन्न नामों से मनाया जाता है. ये विविध पर्व एवं विभिन्न त्योहार हमारे जीवन में सामाजिक, धार्मिक, वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक सभी दृष्टियों से अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. हमारे त्यौहार हमें अपनी संस्कृति की याद दिलाते है, तथा परिवार व समाज को आपस में जोड़े रखने व जीवन में नवउत्साह भरने का अनुपम कार्य करते हैं.
आप सभी को हिन्दू नव वर्ष की अशेष शुभकामनाएँ। ईश्वर से कामना है यह वर्ष हम भारतीयों के लिये ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व के लिये भी सुख, शांति का सन्देश लेकर आए एवं सभी के लिए मंगलमय हो।