हिंदू धर्म में प्रकृति के सभी तत्वों की पूजा, प्रार्थना का प्रचलन और महत्व है, क्योंकि हिंदू धर्म मानता हैं कि प्रकृति से ही हमारा जीवन संचालित होता है। इसीलिए प्रकृति को देवता, भगवान और पितृदेव माना गया है। हिन्दू संस्कृति के अधिकतर तीज त्योहार और पर्व परंपराएं प्रकृति से ही जुड़ी हुई हैं। ऐसा ही एक त्यौहार है "अक्षय तृतीया"
अक्ति, अकती, अक्षय तृतीया, आखा तीज ...अनेक नामों से जाना जाने वाला यह त्यौहार बुंदेलखंड में बड़े ही हर्षोल्लास से मनाया जाता है। बैशाख मास के शुक्ल पक्ष में तीज के दिन का यह पर्व कुंवारी कन्याओं एवं विवाहित महिलाओं के लिए अलग-अलग महत्व रखता है। इस पर्व को कृषक भी बड़े उत्साह और उल्लासपूर्वक मनाते हैं। सबसे पहले चार कलशों में पानी भरकर, पूरे गए चौक पर रखा जाता है। इन घड़ों पर वर्षा के चार माहों- क्रमशः असाढ़, सावन, भादों तथा कुंआर के नाम लिखे जाते हैं। इन घड़ों पर अमियाँ (कच्चे आम) और रोटियाँ रखी जातीं हैं तथा प्रत्येक घड़े में चनों के दाने डाल दिए जाते हैं।
तत्पश्चात पूजा-होम आदि करके प्रतीक्षा की जाती है। दूसरे दिन जिस घड़े के चने फूल जाते हैं, उस घड़े पर अंकित मास में ही वर्षा होगी, ऐसा अनुमान व विश्वास किसानों में होता है। इस तरह ही इस त्यौहार से कृषि-वर्ष का आरम्भ माना जाता है। गाँव का मुखिया ’बसोरों’ से बाजा बजवाता हुआ किसानों के साथ खेत पर नया ’बखर’ लेकर जाता है। पंडित या पुजारी उस बखर की पाँस पर गोबर और हल्दी लगाकर पूजन करता है।
इसके बाद खरीफ फसल के अन्नों- ज्वार, उड़द, मूँग, तिल, मक्का आदि के दाने और सवा रुपया बखर पर रखकर मुखिया/जमींदार पूजन करता है। रुपये, दाने और मिट्टी को अपने हाथ से उठाता है और उन दानों को खेत में बोकर हल/बखर चलवा देता है। ऐसे ही अन्य किसान भी अपने-अपने खेतों पर जाकर करते हैं। अंत में सभी लोग मुखिया या जमींदार के घर जाते हैं, जहाँ उन्हें पान और स्त्रियों को घुघरी (उबले हुए गेहूँ तथा चने) दी जाती है।
कन्यायें और स्त्रियाँ संध्या होते ही ’अकती’ के गीत गाते हुए किसी सरोवर या नदी पर जाती हैं और सोन (भीगी हुई चना दाल) वितरित करतीं हैं। कन्यायें पुतला पुतलियाँ सजातीं हैं। वट वृक्ष के नीचे उनका विवाह और पूजा करतीं हैं। स्त्रियाँ परस्पर हास्य-विनोद करती हुई, अपने-अपने पतियों के नाम जोड़कर इस प्रकार हंसी ठिठौली करती हैं-
’टाठी भरो घिऊ, हमाओ और ........ को एकई जिऊ।’
इसी प्रकार नवविवाहित किशोरियाँ भी ’दिनरियाँ’ या ’दुलरियाँ’ इन शब्दों में गाती हैं-
’अकती खेलन कैसे जाऊँ री,
बरा तरें ठाडे लिवौआ।
मेले री मेले मोरी सकियन के मेले।
ससुरा के संग न जाऊँ री,
बर तरें ठाडे लिवौआ।’
अक्ति के लान कैसे जाऊँ री ,
जे राजा रो रये हिलकिया
रो रये हिलकिया
लाल करें अँखियाँ ….
बेटियों के लिए यह त्यौहार आजन्म अपने बचपन की मीठी यादों की पोटली समान होता है। यह त्यौहार आते ही कल्पनाओं में चलचित्र की भांति विचरने लगते हैं वो प्यारे - प्यारे गुड्डे - गुड़ियाँ, जिनका ब्याह रचाने की तैयारियों में न जाने कब बीत जाता है सखियों संग हंसी - ठिठौली करते वो सुनहरा सा बचपन...
विवाह गुड्डे गुड़िया का होता है परन्तु घर में उत्साह विवाह जैसा ही होता है। गुड्डा-गुड़िया के विवाह से बच्चों को गृहस्थी की सीख मिलती है कि आने वाले समय में वे कुशल माता-पिता बनकर अपनी संतति, परिवार एवं समाज व देश के प्रति अपने दायित्यों का निर्वहन सफ़लता से करें। एक तरह से यह समाज के लिए उत्तम नागरिक बनाने की प्रक्रिया है।
शहरों में तो मिट्टी का घड़ा कभी भी खरीद कर लोग पानी पीना शुरु कर देते हैं, परन्तु ग्रामीण अंचल में यह परम्परा आज भी जीवित है कि अक्ति के दिन से नये घड़े का जल पीना प्रारंभ किया जाता है।
"पीहर' याद आता है
माँ' याद आती है
अक्ती की पुतरियाँ
इशारों से बुलाती हैं
"आज भी जब नए घड़े के पानी से
सोंधी-सोंधी खुश्बु आती है ..."
अक्षय तृतीया के दिन ही भगवान विष्णु के छठें अवतार माने जाने वाले भगवान परशुराम का जन्म हुआ था। परशुराम ने महर्षि जमदाग्नि और माता रेनुकादेवी के घर जन्म लिया था। यही कारण है कि अक्षय तृतीया के दिन भगवान विष्णु की उपासना की जाती है। इस दिन परशुरामजी की पूजा करने का भी विधान है।
अक्षय तृतीया के दिन ही पांडव पुत्र युधिष्ठर को अक्षय पात्र की प्राप्ति भी हुई थी। इसकी विशेषता यह थी कि इसमें कभी भी भोजन समाप्त नहीं होता था।
अक्षय तृतीया के अवसर पर ही महर्षि वेदव्यास जी ने महाभारत लिखना शुरू किया था। महाभारत को पांचवें वेद के रूप में माना जाता है। इसी में श्रीमद्भागवत गीता भी समाहित है।
अक्ति का त्यौहार इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इस दिन पितरों का पिंड दान किया जाता है। जिनकी मृत्यु हो चुकी है उन्हें पितर कुल में मिलाने का कार्य भी इसी दिन होता है। इस दिन पितर कुल में मिले हुए को आगामी पितृपक्ष में पिंड दान दिया जाता है, अन्य पितरों के साथ उसका भी तर्पण किया जाता है।
मान्यता हैं कि इस दिन जिनका परिणय-संस्कार होता है उनका सौभाग्य अखंड रहता है। इस दिन महालक्ष्मी की प्रसन्नता के लिए भी विशेष अनुष्ठान होता है जिससे अक्षय पुण्य मिलता है।
इस तरह समस्त अंचल में अक्ति (अक्ष्य तृतीया) धूम धाम से मनाया जाता है।
भले ही हम आधुनिक युग के भौतिक प्रपंचों में उलझकर परम्पराओं से विरक्त हो रहे हैं, परन्तु इन परम्पराओं का निर्वहन हमें अपनी माटी से जोड़ता है। अपनी संस्कृति से, अपने पुरखों से जोड़ता है, अपने इतिहास एवं समाज से जोड़ता है। इसलिए हमें अपने परम्परागत त्यौहारों को कभी नहीं भूलना चाहिए।