आम इंसान की जिंदगानी में भी,करिश्मा क्यूँ नहीं होता,
साल आता है, हर साल,
पर नया नहीं होता..
वही चिंता है, रोटी की,
तड़प रोज़ी की,
ऱब इन पर भी मेहरबां क्यूँ नहीं होता...
दाल रोटी पर अब तक जो
गुज़र करता था
हाल ये है के वो भी
अब नसीब नहीं होता....
साल नया तो अब दूर की बात रही,
रोज़ उठता तो है, मगर
सवेरा तक नहीं होता.........
आम इंसान की जिंदगानी में भी,
करिश्मा क्यूँ नहीं होता...............






