सोमवार, 29 अगस्त 2011

मुझे कुछ कहना है ...! संध्या शर्मा

देख सकती हैं
नन्ही सी आँखे भी
सपने बड़े - बड़े.

छिपा सकेगा सूरज को
बादल भी
आखिर कब तक...?


अपनों से युद्ध है
लड़ना होगा
अर्जुन की तरह.

सर्वव्याप्त है
सर्वव्यापक है
ईश्वर और भ्रष्टाचार.

है पर कहाँ है...?
लोकतंत्र में
लोकहित.


आसमान नहीं
किसी का दिल छू सको
तो जाने....  

गुरुवार, 25 अगस्त 2011

नया सवेरा आयेगा..... संध्या शर्मा

आज अपनी आँखों के सामने,
भ्रष्टाचार को मिटते देखा,
ईमानदारी को जागते देखा,
लगा इंसानियत जाग रही है,
क्रांति रंग ला रही है,
एक ट्रेफिक पुलिस जो रोज लोगों से,
चालान के बदले रिश्वत लेता था,
उसका दिल भी क्रांति से भर आया था,
आज वह रिश्वत लेकर जेब नहीं भर रहा है,
सिर्फ चालान ही बना रहा है,
पर लगता है, ये भी सबको नहीं भाया था,
उसकी इस अदा ने सबको भरमाया था,
कुछ तो खुश होते दिखे,
पर कुछ फुसफुसाने लगे...
इससे तो यह पहले ही अच्छा था,
सौ पचास से काम चला देता था,
इसकी तो ईमानदारी जाग गई,
और हमारी शामत आ गई...
बताइए अब बेचारा क्या करे,
किसे खुश रखे और किसे नाराज़ करे...?
समस्या यह देश की सही पहले तो हमारी है,
शायद हमने ही फैलाई ये बीमारी है,
"इस लड़ाई को हमें स्वयं से भी लड़ना होगा,
"भ्रष्टाचार निर्मूलन" का आरंभ, अपने आप से ही करना होगा,
देखते ही देखते ये बादल सा छंट जायेगा,
सुनहरा भविष्य, नई रौशनी, नया सवेरा आयेगा..... "          
 

सोमवार, 15 अगस्त 2011

क्या यही है आज़ादी ?? संध्या शर्मा

 
मेरी एक पुरानी रचना जिसे आप सभी के साथ फिर से साझा करना चाहती हूँ...

आज़ादी -आज़ादी ........
मनाते आ रहे हो 65 सालों से  जश्न ,
पर मैं पूछती हूँ ?
आज़ादी -आज़ादी कैसी आजादी....

कहने को तो  भारत माता मुक्त हुई,
गुलामी की जंजीरों से ,
माथे  की  चमकती  हुई बिंदिया,
और होठों पर फैली मुस्कराहट ..
सिर्फ ऊपर से ही दिखती है.

आतंकवाद, जातिवाद, नक्सलवाद, दहशतवाद,
सम्प्रदायवाद से घिरती जा रही है यह,
अन्याय, भ्रष्टाचार, अत्याचार के बोझ तले
दब गई है यह आज़ादी ...

क्यूँ जश्न मना कर करते हो फक्र ??
अब वह अंग्रेजो की गुलाम नहीं रही,
खुद अपनों की बनाई जंजीरों में जकड़ी जा रही है,
हमारी कुंठित मानसिकता, बेशर्मी ,
बेवफाई और बेहयाई  के चंगुल में तड़पती
इस आज़ादी को,
""क्या हम फिर से आज़ाद कर पाएंगे ?"
तो फिर कैसी है यह आज़ादी ? 
क्यूँ  है यह आज़ादी ??
किसके  लिए  आज़ादी ???"

बुधवार, 10 अगस्त 2011

तू जरूर आना... संध्या शर्मा

बचपन में कहती थी,
चंदा है वीर मेरा,
नहीं समझती थी तब...
चाँद दिखता तो रोज है,
पर होता दूर है,
अब समझती हूँ...
कोई पास होकर भी दूर कैसे होता है,
तू तो दूर होकर भी पास होता है,
तू कभी इस चाँद सा मत होना,
जैसा है, हमेशा वैसा ही रहना,
हर साल की तरह राह देखेगी तेरी बहना,
वो आये न आये तू जरूर आना...

सोमवार, 1 अगस्त 2011

बारिश.... संध्या शर्मा

तपती दोपहर की,
ठहरी हुई तपिश में,
एक टुकड़ा बादल का,
तुम्हारे नयनो में
घुमड़ने लगा है,
बरस रहा है,
मेघ तुम्हारे नेह का,
ठंडी अमृत बूँद सा,
टूट-टूट कर
मेरे मन की कच्ची धरा पर,
मुझे भिगो रहा है ,
और शर्मा कर छुपा लिया है,
मैंने अपने आप को,
धानी
सी चूनर में,
धरती की तरह....