गुरुवार, 27 अगस्त 2015

बेटियों से ही तीज त्यौहार के रंग...

भारत देश उत्सव, पर्वों, रंगों एवं विभिन्न संस्कृतियों का संगम है,यहां साल भर, हर मौसम में प्रतिदिन त्यौहार मनाए जाते हैं यह हमारी
प्राचीन एवं उन्नत संस्कृति का परिचायक है। इन त्यौहारों में हमारी उत्सवधर्मिता एवं संस्कारों की झलक दिखाई देती है. त्यौहारों का यह देश अपनी विविधता में एकता के लिए ही विश्व भर में जाना जाता है। 

रक्षाबंधन हमारी संस्कृति की पहचान है और ऐतिहासिक, धार्मिक एवं पौराणिक महत्व रखने वाले इस त्यौहार पर हर भारतवासी को गर्व है। लेकिन वर्तमान समय में भारत में इस पर्व को गंभीरता से लेने की आवश्यक है, क्योंकि एक तरफ तो  बहनों की रक्षा के लिए इस विशेष पर्व को मनाया जाता है वहीं दूसरी ओर कन्या भ्रूण हत्या जैसे अपराधों की संख्या तेज़ी से बढ़ती जा रही है। यदि कन्या-भ्रूण हत्या पर जल्द ही काबू नहीं पाया तो देश में लिंगानुपात और भी अधिक तेज  गति से घट जाएगा जिससे सामाजिक असंतुलन बढ़ेगा। 

सख्त कानून और जागरूकता अभियानों के बावजूद देश में लिंगानुपात में तेजी से गिरावट दर्ज की जा रही है। विकास के मुद्दे पर चुनाव
लड़ रही राजनीतिक पार्टियों के लिए आधी आबादी आज भी कोई मुद्दा नहीं है. 2001 से 2011 के बीच शिशु लिंगानुपात में तेज गिरावट दर्ज की गई है.  2011 की जनगणना के अनुसार स्त्री-पुरुष लिंगानुपात 940 प्रति हजार है, लेकिन 0-6 वर्ष के बच्चों में लड़कियों का अनुपात घटकर महज 914 ही रह गया है। गणना के दौरान यह भी पता चला कि हरियाणा में ऐसे 70 गांव हैं जहां कई वर्षों से एक भी बच्ची ने जन्म नहीं लिया है। ऐसे में ‘बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ’ जैसे नारे महज छलावा लगते हैं। 

बेटी को बोझ समझने की मानसिकता को बदलना होगा, तभी हम स्वस्थ व संतुलित समाज की कल्पना को साकार करने में सफल होंगे। महिलाओं को स्वयं आगे बढ़कर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी होगी और कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए प्रयास करने होंगे। बेटियाँ होगी तभी हम तीज त्यौहार मना सकेगें। बेटे -बेटी के भेदभाव को खत्म करके संतुलित समाज की स्थापना होगी। तभी इस पर्व की सच्ची सार्थकता होगी।  हम आशा करते हैं कि और रक्षाबंधन का यह त्यौहार हमेशा हर्षोल्लास के साथ मनाए जाएगा और हर भाई को बहन के प्रति अपने कर्तव्य की याद दिलाता रहेगा। 

बुधवार, 19 अगस्त 2015

इतिहास के झरोखे से : रानी दुर्गावती...

जन्म स्थान होने की वजह से अनेको बार इस स्थान को देखा है, उस वक़्त भी जब यह पर्यटकों के लिए पूर्णतः खुला था। आजकल इस किले की ऊपरी मंज़िल पर जाने वाली सीढ़ियों पर सुरक्षा की दृष्टि से ताला लगा दिया गया है.

गढ़ा की मुख्य सड़क से अंदर के रास्ते पर सुन्दर प्राकृतिक दृश्यों के साथ-साथ काले पत्थर अनेक रूपों में दिखाई देते हैं, जिसमे से एक विश्व प्रसिद्ध संतुलित शिला भी है. 
    
जबलपुर के मदन महल में एक पहाड़ी पर स्थित गोंड रानी दुर्गावती का किला जो लगभग सन् १११६ मे राजा मदन शाह द्वारा बनवाया गया था। आज भी उनके अनुपम तेज, साहस, शौर्य और सुन्दरता की कहानी कहता शीश उठाये खड़ा है। 


महारानी दुर्गावती कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की एकमात्र संतान थीं। महोबा के राठ गांव में 1524 ई0 की दुर्गाष्टमी पर जन्म के कारण उनका नामदुर्गावती रखा गया। नाम के अनुरूप ही तेज, साहस, शौर्य और सुन्दरता के कारण इनकी प्रसिद्धि सब ओर फैल गयी। दुर्गावती के मायके और ससुराल पक्ष की जाति भिन्न थी लेकिन फिर भी दुर्गावती की प्रसिद्धि से प्रभावित होकर गोंडवाना के राजा संग्राम शाह ने अपने पुत्र दलपत शाह से विवाह करके, उसे अपनी पुत्रवधू बनाया था।


दुर्भाग्यवश विवाह के चार वर्ष बाद ही राजा दलपतशाह का निधन हो गया। उस समय दुर्गावती की गोद में तीन वर्षीय नारायण था। अतः रानी ने गढ़मंडला का शासन संभाल लिया। 
रानी दुर्गावती के इस सुखी और सम्पन्न राज्य पर मालवा के मुसलमान शासक बाजबहादुर ने कई बार हमला किया, पर हर बार वह पराजित हुआ। तथाकथित महान मुगल शासक अकबर भी राज्य को जीतकर रानी को अपने हरम में डालना चाहता था। उसने विवाद प्रारम्भ करने हेतु रानी के प्रिय सफेद हाथी (सरमन) और उनके विश्वस्त वजीर आधारसिंह को भेंट के रूप में अपने पास भेजने को कहा. रानी ने यह मांग ठुकरा दी.

इस पर अकबर ने अपने एक रिश्तेदार आसफ खां के नेतृत्व में गोंडवाना पर हमला कर दिया. एक बार तो
आसफ खां पराजित हुआ, पर अगली बार उसने दुगनी सेना और तैयारी के साथ हमला बोला। दुर्गावती के पास उस समय बहुत कम सैनिक थे। उन्होंने जबलपुर के पास नरई नाले के किनारे मोर्चा लगाया तथा स्वयं पुरुष वेश में युद्ध का नेतृत्व किया। इस युद्ध में 3,000 मुगल सैनिक मारे गये लेकिन रानी की भी अपार क्षति हुई थी।

अगले दिन 24 जून 1564 को मुगल सेना ने फिर हमला बोला. आज रानी का पक्ष दुर्बल था, अतः रानी ने अपने पुत्र नारायण को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया. तभी एक तीर उनकी भुजा में लगा, रानी ने उसे निकाल फेंका. दूसरे तीर ने उनकी आंख को बेध दिया, रानी ने इसे भी निकाला पर उसकी नोक आंख में ही रह गयी। तभी तीसरा तीर उनकी गर्दन में आकर धंस गया।
रानी ने अपना अंत समय निकट जानकर वजीर आधारसिंह से आग्रह किया कि वह अपनी तलवार से उनकी गर्दन काट दे, पर वह इसके लिए तैयार नहीं हुआ। अतः रानी अपनी कटार स्वयं ही अपने सीने में भोंककर आत्म बलिदान कर दिया।महारानी दुर्गावती ने अकबर के सेनापति आसफ़ खान से लड़कर अपने आत्म बलिदान से पूर्व पंद्रह वर्षों तक शासन किया था।

जबलपुर के पास जहां यह ऐतिहासिक युद्ध हुआ था, उस स्थान का नाम बरेला है, जो मंडला रोड पर स्थित है, वही रानी की समाधि बनी है, जहां जाकर लोग अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। जबलपुर मे स्थित रानी दुर्गावती यूनिवर्सिटी भी इन्ही रानी के नाम पर बनी हुई है। 

शनिवार, 15 अगस्त 2015

तस्वीर सच्चे भारत की ...

आज का दिन हमें अमर शहीदों और स्वतंत्रता सेनानियों के संघर्ष व बलिदान की याद दिलाता है। हमें आत्मचिन्तन करने तथा महान देशभक्तों के सपनों एवं लक्ष्यों को प्राप्त करने की प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने का अवसर प्रदान करता है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्षों बाद भी, न तो हम भाषा की दृष्टि से आजाद हो पाये हैं और न ही व्यवस्थाओं की दृष्टि से । आज आज़ादी के नाम पर हम अंग्रेजी गुलामी में जी रहे हैं, सभी व्यवस्थाओं का स्वदेशीकरण करना होगा, जो दुर्भाग्य से नहीं हुआ, इस आधी अधूरी आजादी के स्थान पर हमें पूरी आजादी लानी होगी।  जब हम अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठा सकते हैं , सरकार बदल सकते हैं, तो इस दिशा में भी प्रयास क्यों नही?? 
आप सभी को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं ...जय हिन्द



खेत - खलिहान की संगत में संवर जायेंगे 
अपने शहरों को ज़रा गाँव तक लाकर देखो  

खुद बखुद आएगी बचपन की चमक आँखों में 
नाव कागज़ की कभी बारिश में चलाकर देखो

सच्चे भारत की तस्वीर बनाना चाहते हो तो 
दीवार नफरत की एक रोज गिरा कर देखो

मांगते रहोगे तो बस भीख ही मिल पायेगी 
अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाकर देखो ....

बुधवार, 12 अगस्त 2015

जहां गांधर्व नृत्‍य पर रेणुका मुग्‍ध हुई - संध्‍या शर्मा

भारत में तीर्थस्‍थलाें का अपना सुदीर्घ सिलसिला है। ये तीर्थ केवल भ्रमण के लिए ही नहीं, आत्मिक शांति प्रदान करते हैं और आध्‍यात्मिक निष्‍ठा को चिरायु करते हैं। यह तीर्थों का देश है। ग्राम-ग्राम ही नहीं, पर्वत-पर्वत और नदी-नदी भी तीर्थों का सुंदर समागम है। महाराष्‍ट्र में नागपुर से लगभग 220 किलोमीटर की दूरी पर यवतमाळ व नांदेड जिले की सीमा पर स्थित माहुरगढ़ देवी रेणुकामाता के प्राचीन मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। इसे आदिशक्ति के साढ़े तीन पीठों में से एक पूर्णपीठ माना जाता है। शक्तिसंगम तंत्रादि में देश के जिन शक्तिपीठों की महिमा मिलती है, यह क्षेत्र उनसे अतिरिक्‍त होकर भी देवी कृपाकांक्षियों के लिए सुख्‍यात है। नागपुर से करीब छह घंटे माहुर पहुंचने में लगते हैं। देर रात तक यहां पहुंचने वालों का सिलसिला निरंतर रहता है किंतु दर्शनों के लिए सुबह की वेला ही उचित होती है। यहाँ कई दर्शनीय स्थल हैं, जिनके दर्शन पुण्‍य का सेतु है। कतिपय तीर्थों का परिचय यहां दिया जा रहा है। 

अनुसूया माता मंदिर-
यहां आने वाले सर्वप्रथम अनुसूयामाता मंदिर जाना उचित समझते हैं। यह रामायणकाल की स्‍त्री शक्ति के प्रति श्रद्धा का धाम है। मंदिर तक पहुँचने के लिए लगभग 187  सीढ़ियाँ चढ़नी होती हैं। वैसे शिखर के लिए सीढ़ियों से लगा हुआ एक कच्चा मार्ग भी है, परन्तु आने-जाने वाले सीढ़ी के रास्ते जाने और कच्चे मार्ग से वापसी को उचित बताते हैं। हमने उनका अनुसरण किया। सुन्दर प्राकृतिक परिसर में भव्य मंदिर स्थित है, जहां माता अनुसूया अपने माता-पिता सहित विराजमान है। यहां पहुंचकर नारी की उ‍स शक्ति को बरबस प्रणाम हो जाता है जिसके संकल्‍पों में सृष्टि की रचना का पराक्रम होता है। यह देवी धैर्य, धर्म की धरा-धुरि सी दिखाई देती है।

दिव्‍य दत्तशिखर -
इसके पश्चात् दत्तशिखर की ओर कदम बढ़ते हैं। यहाँ पहुँचना बहुत आसान होता है। गाड़ी सीधे मंदिर के द्वार तक पहुँच जाती है। मंदिर का मुख्यद्वार बड़ा ही आकर्षक और विशाल है. यह स्‍थापत्‍य ही जन जन में इसके श्रद्धाधाम होने का सूचक है। दत्‍तात्रेय की पूरे सह्याद्रि क्षेत्र से लेकर दक्षिण तक विशेष मान्‍यता रही है। पुराणों में दत्‍तात्रेय की महिमा मिलती है और यहां पहुंचकर शब्‍दों की सत्‍ता के भी दर्शन होते हैं। सुन्दर प्राकृतिक परिसर में भव्य मंदिर स्थित है, जहाँ भगवान दत्तात्रय की मनोहारी मूर्ति शोभायमान है. कहा जाता है कि इस स्थान पर भगवान् दत्तात्रय ने तपस्या की थी जिसके कारण यह "दत्तशिखर" के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यूं भी साधना के शिखर पर चढ़कर महात्‍माओं ने देश के कई कई पर्वत शिखरों को प्राणमयी ऊंचाइयां प्रदान की है। दत्तशिखर के समीप ही एक पुराना किला भी है। यह बहमनी सुलतान के राज्य का हिस्सा था तथा स्वतंत्रता के पूर्व इस स्थान पर हैदराबाद के निज़ाम का राज था।   

महिमामय माहुरगढ़ -
इसी क्षेत्र में माहूर गांव से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर भगवती रेणुकादेवी का प्राचीन मंदिर है। महाराष्‍ट्र में प्रासादों की एक स्‍थानीय शैली रही है- हेमाड़पंथी। इस शैली में ही यह मंदिर निर्मित है। पर्वतीय अंचलों में अनुकूलता के अनुसार प्रासादों का निरापद निर्माण हुआ जो मौसम सहित जन-मन के लिए विहारी माने जाते हैं। यहां यह विशेषता लगती है ही। यह मंदिर एक चारु पहाड़ी पर अपने शिखर को नई ऊंचाइयां देता प्रतीत होता है। ऐतिहासिक स्रोत सिद्ध करते हैं कि इस मंदिर की नीव देवगिरी राज्‍य के यादव राजा ने 9वीं शताब्दी में डाली थी। दशहरा यहां का मुख्‍य उत्‍सव है। यहां नवरात्रा के साथ ही देवी रेणुका की पूजा की जाती है। देवी रेणुका जामदग्‍न्‍य परशुराम की माता है और किंवदन्ती के अनुसार भगवान् विष्णु की अंशीभूत मानी जाती हैं। 

महेंद्र पर्वत से लेकर इस इलाके तक परशुराम चरित्र के अनेक पड़ाव देखने को मिलते हैं।मंदिर अपने चारों तरफ घने पेड़ों से घिरा हुआ, और बड़ा ही रमणीक प्रतीत होता है और लगता कि प्रासादों के निवेश के लिए ग्रंथों में जिन स्‍थान-अर्हताओं काे बताया गया है, वे यहां पूरी तरह मिलती है। सचमुच यह देवधाम, देवस्‍थान लगता है। मंदिर तक पहुँचने के लिए लगभग 287 सीढ़ियाें को चढ़ना पड़ता है। यह मार्ग भी सुरम्‍य, छायादार, सुगम्य, सुविधाजनक बनाया गया है। भव्य मंदिर में सर्वप्रथम भगवान परशुराम झूले में विराजमान हैं। मंदिर के गर्भगृह में माता रेणुका एक मुखाकृति अथवा मुखौटे के रूप में विराजमान हैं और पूजान्‍तर्गत है। देवी को विशेष तौर पर 'ताम्बूल' का भोग लगाया जाता है। यह संयोग ही है कि प्रतिमाशास्‍त्रों में अनेक देवियों को तांबूलप्रिया कहा गया है। उनके हाथों में भी तांबूल पात्र को एक आयुध के समान कहा गया है। यहां पहुंचकर शास्‍त्रों की मान्‍यताओं को जीवंत देखने का अवसर भी मिलता है।

मुख्य मंदिर के सम्मुख भी अनुसूया देवी का मंदिर है। मंदिर के पृष्ठ भाग से लगभग 50 सीढ़ियां नीचे उतरकर भगवान् पशुराम के मंदिर तथा मंदिर के पीछे सीढ़ीयुक्त प्राचीन बावड़ी बनी हई है। इस प्रदेश में सीढि़यों वाले जलस्रोतों के रूप में यह निर्मिति बहुत महत्‍वपूर्ण मानी जाती है। वापसी के लिए थोड़ा सा कच्चा मार्ग है जो पक्के रास्ते से मिल जाता है।

मंदिर से जुड़ा पौराणिक प्रसंग -
परशुराम आख्‍यान पौराणिक रूप में ख्‍यात रहा है। रेणुका भगवान परशुराम की माता थी। ऋषि जमदग्नि को परशुराम के पिता थे। ऋषि जमदग्नि शीघ्रकोपी स्वभाव के थे। माता रेणुका रोजाना ही पास की नदी से पानी लाने जाती थी। एक दिन उन्हें नदी किनारे कुछ गन्धर्व नृत्य करते हुए और गांधर्व गान करते दिखाई दिए। वे उन गन्धर्वों के नृत्य संगीत को देखने में इतनी मग्न हो गईं कि समय का ध्यान ही न रहा।  उन्हें लौटने में विलंब हो गया। इस कारण ऋषि जमदग्नि इतने क्रोधित हुए कि उन्होंने अपने पुत्रों को देवी रेणुका के वध की आज्ञा दे दी. किसी अन्य पुत्र में ऐसा करने का साहस नही हुआ, परन्तु पिता की आज्ञा मानकर परशुराम ने अपना परशु अपनी ही माता पर चला दिया। यह साहस अपूर्व और अप्रत्‍याशित था। हालांकि परशुराम बहुत परेशान हो गए किंतु जगदग्नि की क्रोधाग्नि शांत हो गई। ऋषि ने प्रसन्न होकर पुत्र से वरदान मांगने को कहा तो पशुराम ने अपनी माता को पुनजीर्वित करने का निवेद‍न किया।  जमदग्नि ने कहा- पुत्र तुम अपनी माता को पुकारते हुए आगे बढ़ो, वे स्वयं तुम्हारे पीछे आएंगी,  लेकिन तुम्हे पीछे पलटकर नही देखना होगा। पितृभक्‍त परशुराम ने वैसा ही किया। कुछ दूर चलने के बाद ही परशुराम ने पीछे मुड़कर देख लिया। उसी समय माता रेणुका मुखौटे में परिवर्तित हो गई। कहते हैं कि वही इस माहुर पर्वत पर विराजमान हैं।

विनायकों का वैभव -
माहुर से नागपुर के बीच विदर्भ के अष्टविनायकों में से केलझर नामक छोटे से गांव की पहाडी पर विराजे अष्टविनायक एवं नागपुर यवतमाल रोड पर कलंब नामक गांव की एक बावडी में स्थित चिंतामणि गणपति के दर्शन भी इस यात्रा की महत्‍वपूर्ण उपलब्धि मानी जाती है। इस पूरे ही क्षेत्र में विघ्‍न विनायक का वैभव माना जाता है। मुद्गल पुराण और गणेशपुराण में इन गजानन की महिमा का गुणगान मिलता है, मगर आंखों से प्रत्‍यक्ष देखने का जाे लाभ यहां आकर मिलता है, वह दिव्‍य और दुर्लभ तो है ही, वर्णन के विषय से परे भी है।