बुधवार, 12 जुलाई 2017

सेल्फी से प्राण गंवाते युवा

"सेल्फी मैंने ले ली आज, सेल्फी मैंने ले ली आज" ढिंचैक पूजा के इस वाहियात गर्दभगान से आज के युवाओं की मानसिकता का पता चलता है कि स्वचित्र के प्रति अनुराग किस जानलेवा स्तर तक बढ़ गया है। पिकनिक स्पॉट, समंदर की लहरें, ऊंची चट्टानें, नदी की जलधारा, चलती ट्रेन जैसी खतरनाक ज़ोखिम भरी जगहें युवाओं को सेल्फी लेने के लिए आकर्षित करती है और यही दीवानगी जानलेवा साबित हो रही है।

पिछले दिनों गुरुपूर्णिमा के दिन नागपुर के समीप वेना डैम में नाव पर सेल्फी लेने के चक्कर में घटी हृदय विदारक घटना आठ युवकों की मौत का कारण बनी। जिसमे से चार तो परिवार के इकलौते चिराग़ थे। एक के विवाह को सिर्फ डेढ़ वर्ष हुआ था, और चार माह की बेटी। मृतकों के परिवारों पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा।

सेल्फी का क्रेज दरअसल एक जानलेवा एडवेंचर साबित हो रहा है जहां मौज-मस्ती की चाह और कुछ नया कर गुजरने ख्वाहिश रखनेवाले (ज्यादातर युवाओं) को जान से हाथ धोना पड़ता है या अन्य दुर्घटना का शिकार होना पड़ता है। यह अजीब विडंबना है कि महज एक सेल्फी के लिए युवा अपनी ज़िन्दगी से हाथ धो बैठ रहे हैं। सेल्फी से जुड़ा एक्सपेरिमेंट दरअसल जानलेवा साबित हो रहा है लेकिन ज्यादातर युवा इसे नजरअंदाज कर रहे है जिससे भयावह स्वरूप हम सामने देख रहे है, जो चिंतित करनेवाला है।

सेल्फी जानलेवा साबित हो रही है उसके लिए सावधानी बरतना जरूरी है। सेल्फी की आस में ऐसे 'जानलेवा एवडेंचर' से बचा जाए जहां जान का खतरा हो, किसी दुर्घटना का अंदेशा हो। इसके लिए जरूरी है कि चलती ट्रेन, चलती गाड़ी ,पहाड़ों और छत, गहरे पानी में नाव आदि पर सेल्फी लेने से बचना चाहिए। ऐसी जगहों पर ज्यादातर ये देखा गया है कि 'परफेक्ट' सेल्फी पिक्चर के चक्कर में दुर्घटना हो जाती है जिसका हमें कतई अंदाजा नहीं होता। सेल्फी का शौक या क्रेज बुरा नहीं कहा जा सकता लेकिन यह उस हद तक नहीं होना चाहिए जहां जिंदगी सुरक्षित नहीं रह जाती और मुश्किलों में घिर जाती है। सेल्फी की 'अति' पर नियंत्रण रखने की जरूरत है।

ख़्वाहिशों या क्रेज की नदिया में ऐसी भंवर हर्गिज ना हो जिससे आपकी जिंदगी पर किसी भी प्रकार का खतरा मंडराता हो। एक जीवन के साथ उसके परिवार, उसके अपनों का स्नेह, जीवन और सपने जुड़े होते हैं। जिंदगी अनमोल है, इसे सेल्फी जैसे क्रेज से खत्म करना कहां की समझदारी है?

न जाने कितने प्राण सेल्फी के चक्कर में गए हैं तब भी लोग सावधानी नहीं बरत रहे। "बड़े भाग मानुस तन पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।" जीवन कितना महत्वपूर्ण है, अगर एक बार प्राण निकल गये तो दुबारा नहीं लौटने वाले, फोटो का क्या है, यहाँ नही तो वहाँ ली जा सकती है, इसलिए सावधानी रखना बहुत ही आवश्यक है जिससे परिजनों को दारुण दुख सहना न पड़े।

शनिवार, 1 जुलाई 2017

नर्मदा नदी और उसके घाटों से जीवन का रिश्ता - जबलपुर, म. प्र.


आदिकाल से ही नदियों के साथ मनुष्य का एक भावनात्मक रिश्ता रहा है, लेकिन हमारे देश भारत में इन्सान का जो रिश्ता नदियों के साथ रहा है, उसकी मिसाल शायद ही किसी दूसरी सभ्यता में देखने को मिले। नदियों के साथ भारत के लोगों का रिश्ता जितना भावनात्मक है, उससे कहीं ज्यादा आध्यात्मिक है।

उन्ही नदियों में से है एक नदी नर्मदा। जिसे मैंने जीवन के साथ जिया है। बाल्यकाल में जब भी मुझसे मिलती स्वस्थ, ऊर्जा से भरपूर  मासूम बच्ची की तरह कूदती-फाँदती, किलकारियाँ भरती दौड़ती सी प्रतीत होती थी। जंगलों-घाटियों, खेतों- पहाड़ों को तेजी से पार करती हुई इतनी बेकल कि कहीं नहीं रुकती, विश्राम न करती। बिना रुके, बिन थके बस दौड़ती चली जाती। राह में आने  वाले पत्थर-मिट्टी, पेड़-पौधों के साथ रिश्ता जोड़तीं, घाटों-तटों और ऊँचे पहाड़ों पर बसे हुए गावों को एक सूत्र में बाँधती चलती।  
जन्म से लेकर मृत्यु व मृत्यु के पश्चात् भी मोक्षदायिनी, जगतारणी का सामीप्य अद्भुत ऊर्जा का संचार करने वाला होता है। 
तभी तो स्थानीय लोकगीतों कहते हैं - 
नरबदा मैया ऐसी मिली रे 
ऐसी मिली रे जैसे मिल गए महतारी और बाप रे 
नरबदा मैया हो SSSSS

किशोरवय होते-होते मेरी नज़रों ने भी बदल दिया इसका रूप। स्वाभाविक चंचलता और चुलबुलेपन को छोड़ कर गांभीर्य को ओढ़े शर्मीली, लचीली, गुनगुनाती, एक नवयुवती सी, जिसके सामने था असीम विस्तार और क्षितिज तक फैला हुआ एक खुला आसमान। मैदानों में जीवन और उर्वरता बिखेरती,  तरह-तरह के जीव-जंतुओं, वनस्पतियों को पालती-पोसती हुई, कब युवती से माँ में परिवर्तित हो गई पता ही न चला। 
अल्हड सा मन कलकल बहती नदिया की ताल पर आँखे मूंदकर जाने कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है,खो जाता है इस अद्भुत प्राकृतिक वातावरण में और हौले से गुनगुना उठता है - 
ओ कान्हा, मोरी भर दो गगरिया
भर दो भरा दो, सर पे धरा दो
ओ कान्हा, बतला दो डगरिया। ओ कान्हा...।
गोकुल नगर में लगी है बजरिया
ओ कान्हा, मोह ला दो चुनरिया। ओ कान्हा...।
कोई नगर से वैदा बुला दो
झड़वा दो अरे मोरी नजरिया। ओ कान्हा...।
मैं तो रंग गई, कान्हा रंग में
सूझे न मोहे, कोई डगरिया

ये माँ नर्मदा के तट ही तो है जहाँ जनमानस अपनी आस्था के उपक्रमों को जोड़ता हैं और आसक्ति से मोह और मोह से मोक्ष तक का सफर समझ पाते हैं। लोग सुख के क्षणों में उसके किनारे की चाह रखते हैं तो दुःख के समय इसके बहते पानी को देख कर जिंदगी में निरंतरता का पाठ सीखते हैं। इसके घाट अनगिनत अंतिम संस्कारों के साक्षी हैं। कोई आत्मा की शांति तो कोई मृत-आत्मा की शांति के निमित्त इसकी शरण में जाता है। प्रेमी-युगल इसके घाट किनारे बैठकर अपने नवजीवन के स्वप्न बुनते हैं। तो कहीं बाल्य अवस्था की किलकारियाँ मुंडन संस्कार करवाती हुई गूंजती सुनाई देती है। 
जन्म - मरण के बंधन से मुक्ति-विरक्ति के भाव जन्म लेते हैं , तो मन कह उठता है 
जिदना मन पंछी उड़ जानैं,
डरौ पींजरा रानैं।
भाई ना जै हैं बन्द ना जैहें।
हँस अकेला जानें।
ई तन भीतर दस व्दारे हैं
की हो के कड़ जाने।
कैवे खों हो जै है ईसुर।
एैसे हते फलाने।
 
ऊँच-नीच, जिंदगी के सुख-दुःख, उलझनें, माधुर्य-गंदगी, शुभ-अशुभ, पाप-पुण्य के अनुभवों को समेटे हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए घाटों-तटों में फैली हुई दुनियादारी, जीवन की सरलता-कटुता, उचित-अनुचित को निभाते हुए हर उलझन और सुलझन भरी रोजमर्रा की घटनाओं के साथ ही इतिहास के हर बदलते परिदृष्य की साक्षी है नदी और यही कारण भी है उसके हर तट से लगाव का। 

ग्वारीघाट- ऐसी मान्यता है कि यहां मां पार्वती यानी गौरी ने तपस्या की थी। यहां मौजूद गौरी कुंड भी इस बात का प्रमाण देता है। पहले यह घाट गौरीघाट के नाम से जाना जाता था।लेकिन वर्तमान समय में इसे ग्वारीघाट कहते हैं।

ग्वारी का मतलवगांव और घाट का मतलव नदी किनारे का स्थान इसलिए अव ये ग्वारीघाट कहलाता हैं। कुछ लोग मानते हैं कि गौरीघाट का अपभ्रंश होकर इसका नाम ग्वारीघाट हो गया है। इसे मुख्य घाट के नाम से भी जाना जाता हैं। जहां पुराहित बैठ कर धार्मिक कार्य जैसे मुंडन,काल सर्प की पूज,दीप-दान,कथा आदि कार्यों का आयोजन करते है।

सिद्घ घाट- जैसा कि नाम से ही इस घाट का नाम ध्यान और सिद्घी से जुड़ा हुआ है। यहां एक जलकुंड मौजूद है। मान्यता है कि इसमें साल भर पानी भरा रहता है। यह भी माना जाता है कि कुंड के पानी को शरीर में लगाने से चर्म रोग ठीक हो जाता हैं। इसी घाट पर मां नर्मदा की आरती की जाती हैं।

जिलहरी घाट- ग्वारीघाट से कुछ ही दूरी पर स्थित नर्मदा के इस घाट की कहानी शंकर जी से जुड़ी है। यह मान्यता है कि यहां यहा पत्थर पर स्वनिर्मित भगवान शंकर की एक जिलहरी है। जिलहरी के कारण ही इस घाट का नाम जिलहरी घाट पड़ा।

उमा घाट- यह घाट ग्वारीघाट का ही एक हिस्सा है। पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने इस घाट का जिर्णोधार करवाया था। यह घाट मुख्य रूप से महिलाओं के लिए बनवाया गया था। उमा भारती के नाम के कारण ही इस घाट को उमा घाट के नाम से जाना जाने लगा। वहीं पार्वती जी की तपस्या यहां भी होना माने जाने के कारण भी इसे उमा घाट कहते हैं।

लम्हेटाघाट- प्राचीन मंदिरों के कारण इस घाट का काफी महत्व है। इस घाट पर स्थित है श्री यंत्र का मंदिर जिसे मां लक्ष्मी का प्रतीक माना जाता है। मान्यता है कि इस मंदिर में पूजा एवं अनुष्ठान करने लक्ष्मी की प्राप्ती होती हैं। जहां तक नाम का सवाल है तो लम्हेटा नाम के गांव के किनारे बसे होने पर इसे लम्हेटा घाट कहते हैं। एक रोचक बात यह है कि घाट का उत्तरी तट लम्हेटा और दक्षिणी तट लम्हेटी कहलाता है। एक अन्य विशेषता है यहां के फॉसिल्स। जो लम्हेटा फॉसिल्स के नाम से प्रसिद्घ हैं।

पंचवटी घाट- मान्यता है कि वनवास के दौरान श्रीराम यहां आए और भेड़ाघाट स्थित चौसठ योगिनी मंदिर में ठहरे थे। भेड़ाघाट का नाम भृगु ऋषि के कारण पड़ा। पंचवटी में अर्जुन के पांच वृक्ष होने के कारण इसका नाम पंचवटी पड़ा। यहाँ पर संगमरमर के सफ़ेद, व मनोहारी हल्के रंगों के पहाड़ों के बीच नौकायान करना अद्भुत आनंददायक है., विशेषकर, चांदनी रात में यहाँ की प्राकृतिक छठा देखने लायक होती है।  एक जगह पर दो पहाड़ों के बीच की दूरी इतनी कम हो जाती है कि कहा जाता है बन्दर इधर से उधर उछल कर नदी को पार कर लेते हैं, जिसे बंदरकूदनी नाम दिया गया है। 


तिलवारा घाट- प्रचीनकाल में तिल भांडेश्वर मंदिर यहां हुआ करता था। इसके साथ तिल संक्राति का मेला भरने के कारण भी इसे तिलवारा घाट कहते हैं।

सभी घाटों का अपना महत्व

सभी घाट अपने आप में एक प्रसिद्धि लिए हुए हैं। सब घाटों का अपना-अपना अलग धार्मिक महत्व हैं। जिनमें से मुख्य रूप से ग्वारीघाट का धार्मिक दृष्टि से,भेड़ाघाट व पंचवटी घाट का पर्यटन की दृष्टि से और तिलवारा का मकर संक्राति की दृष्टि से अपना महत्व हैं। 

अगर हमें अपनी सभ्यता, अपनी संस्कृति को बचाना है, उसे बेहतर बनाना है तो हमें नदियों से प्रेम करना सीखना होगा। हमें इस नदी से वही पुराना माता और संतान वाला नाता जोड़ना होगा। इनके घाट संवारने होंगे और पूजा-पाठ से लेकर पर्यटन तक के रिश्ते कायम करने होंगे।