रविवार, 14 अगस्त 2016

आज़ादी....!



एक बात कहूँ..?
खरीदोगे तो
अपमान करोगे
सड़कों पर फेंकोगे
न खरीदोगे तो
नन्हे मज़दूरों का
साल भर का 
इन्तज़ार व्यर्थ
चलो मान लिया
तुम मना लोगे 
इनके बनाए हुए
झंडे बिना आज़ादी
क्या है कोई हल...?
जो पूरा कर दे इनके
छोटे - छोटे सपने
जो दिला सके इन्हें
भूख और गरीबी से
आज़ादी....!

बुधवार, 10 अगस्त 2016

रिमझिम के तराने लेकर आई बरसात …… संध्या शर्मा

नौतपा की झुलसाने वाली गर्मी के बाद जब वर्षा की पहली फ़ुहार भूमि पर पड़ती है तो झींगुर का मन नाच उठता है, दादुरों को पुन: जीवन मिल जाता है और वे कूद-कूद कर बारिश के जल वाले स्‍थान की खोज में निकल पड़ते हैं। धरती में सोए बीज अंगड़ाई लेने लगते हैं। चातक पंख फ़ड़फ़ड़ाने लगता है। मोर नाचने लगते हैं, गाय-गोरु, कीट-पतंगे भी हरियाने लगते हैं, सारी प्रकृति ही वर्षा के स्वागत में लग जाती है । कुछ दिनों में धरती हरियाली की चादर ओढ लेती है तो लगता है कि किसी ने सूखकर कांटा हो चुकी वसुधा पर अमृत की बूंदे छिड़क दी हो। 

यह मौसम हर किसी को झूमने पर मजबूर कर देता है। चारों ओर हरियाली, ठंडी-ठंडी पवन की मदमस्त बयार, बारिश की रिमझिम और सखियों का साथ। वर्षा का मौसम मेलों की परंपराओं को भी हरिया जाता है। वनखंड में सखियों के स्‍वर गूंजते हैं। भोजपुरी गीतों में वनों की रौनक का वर्णन मिलता है : 
कवना बने रहलू ए कोइलरी, कवना बने जासु। 
केकरा दुअरवा ए कोइलरि उछहल जासु।
नंदबने रहलू एक कोइलरि बृंदाबन जासु।

जब किसान कांधे पर हल लेकर निकलता है, तो वह शुभ दिन होता है, क्योंकि यही वह समय होता है जब मनुष्य के भविष्य के लिए अनाज उपजाने का कार्य करता है। धरती आर्द्र और आर्द्रा ही बुवाई का नक्षत्र, भोजपुरी किसानों को यह सब याद है : 

खेतवा जा ला रे किसनवा/हरवा जोते ला किसनवा 
नाचब गाईब पहिरब कंगनवा हो 
हंसिया लईके काटब धनवा 
लेकिन रहब तोहरे संगवा
ठीक दोपहरिया में लइबे जलपानवा 
खेतवा जा ला रे किसनवा...... 

आदरा धान पुनरबस पैया। 
गेल किसान जे बोये चिरैया। 
यह मौसम प्रियागमन का भी है। इसीलिए कहा जाता है कि यदि प्रिय के आने का समाचार मिला होता तो मैं बासमती चावल छंटवाकर रखती : 
जउ हम जनती पिया की अवइया। 
वासमती चउरा छंटाइ रखती। 

इस काल में देहात में जुताई-बुवाई की रंगत चलते ही 'समहुत' का वातावरण बन जाता है, घर-घर विशेष भोजन तैयार होते हैं। किसानों के लिए हल और बैल दोनों ही देव तुल्‍य होते हैं और बुवाई के साथ्‍ा ही कामनाओं के ज्‍वार उठने लगते हैं कि चारों कोने हरियाली से पूर्ण हों और सुहासित, सुवासित लगे : 
हरियर हरियर चारो कोनवा सहादेव।

वर्षा से पृथ्वी को जो जल मिलता है तो उससे समस्त जीव जंतुओं का निस्तार होता है और ग्रीष्म काल की गर्मी से छुटकारा प्राप्त होता है। खेतों में फसल बोई जाते हैं। पेड़-पौधों के उगने के लिए यह ऋतु सबसे श्रेष्ठ है । खेतों में काम करते हुए हलियारों के गीत कानों में गूंजने लगते हैं, ढेले फ़ोड़ती महिलाओं के सुमधुर कंठ का गान खेतों में महकाने लगता है - झूल तो पड़ गयो अमवा की डार मा, 
मोर-पपीहा बोले !" 

ऐसे कुछ बुंदेली गीत हैं, जो वर्षा के आते ही गली-कूचों और आम के बगीचों में गूंजने लगते हैं। मोर, पपीहा और कोयल की मधुर बोली के बीच युवतियां झूलों का लुत्फ उठाती हैं। सावन को वर्षा ॠतु का महत्वपूर्ण महीना माना जाता है, इसे तीज-त्यौहारों का महीना भी कहा जाता है, विशेषकर भोले बाबा की उपासना का माह भी होता है। 

नव विवाहितों के मायके आते ही झूले डाले जाते हैं, वैसे तो वर्तमान से सभी के घरों में बारहमासी झूला स्थापित होता है, किन्तु सावन में उपवन में लगे झूले के प्रति मन में विशेष उल्लास, उमंग, उत्कंठा होती है। वास्तव में झूला झूलना मात्र आनंद की अनुभूति नहीं कराता अपितु यह स्वास्थ्यवर्धक प्राचीन योग है जो सावन के मनोरम मौसम के कारण प्रदूषण मुक्त शुध्द वायु देता है।

बरसात होने से हवा में उड़ने वाले धूल, धुंए के कण, पानी में घुलनशील सभी हानिकारक गैसें भी वर्षा के जल के साथ-साथ धरती पर गिरकर भूमि में समा जाती हैं और शुध्द हवा स्वास्थ्य के लिए उत्तम होती है। सावन में चहुं ओर हरियाली छाई होती है। कहा गया है कि हरा रंग आंखों पर अनुकूल प्रभाव डालता है। इससे नेत्र ज्योति बढ़ती है। झूला झूलते समय नेत्र कभी खुलते और कभी बंद होते रहते हैं। इस सह उपक्रम के कारण सावन में झूले के माध्यम से नेत्रों का सम्पूर्ण व्यायाम हो जाता है। जो नेत्रों के लिए अत्यंत हितकारी है। झूला झूलने से हमारे मन मस्तिष्क में हर्ष और उल्लास की वृध्दि होती है। इसके कारण ग्रीवा की नसों में पैदा होने वाला तनाव कम होता है जिससे स्मरण शक्ति तीव्र होती है। झूला झूलते समय श्वांस-उच्छवास लेने की गति में तीव्रता आती है।

वर्षा ऋतु में कवि मन बहुत प्रसन्न हो जाता है व वर्षा की धाराओं के साथ झूमने लगता है, रंग बिरंगे फूलों के साथ खिल उठता है, तितलियों से संग उड़ता है, भौरों के साथ गुनगुनाता हुआ प्रकृति के साथ हरियाला हो जाता है। और कह उठता है- 
"शोख़ हवाएं आज ज़रा - ज़रा नम हैं, काली घटा, बिजली बूंदों का संग है...।"

भगवान कृष्ण और राधा की रासभूमि पर सावन की बहार में स्वयं भगवान भी झूलने का मोह संवरण नहीं कर पाते। सावन के दिनों में ब्रज में रिमझिम-रिमझिम बरसात में भगवान राधा-कृष्ण को भी झूलों पर झुलाया जाता है। राधा कृष्ण के साथ हर मन बावरा होकर अपने प्रिय को पुकारते हुए गा उठता है- सावन के झूले पड़े, तुम चले आओ, तुम चले आओ.....।