सोमवार, 30 अप्रैल 2012

प्रणय.... संध्या शर्मा

तरंग सरिता की
हिलोरें लेने लगीं
नयनो में
बांध भावनाओं का
फूट पड़ा
शिथिल कर गईं
पलकों को
भावहीन हवाएं
अंतस अनंत गहरा
घोर अँधेरा
मौन हूँ मैं
और तुम....!
बह रहे हो
झर-झर 
इन नयनो से
झरने की तरह
क्यों ना तुम
भींच लो मुट्ठी
निचोड़ दो बादलों को
भर दो प्रणय सरिता
और मैं....!
समेट लूँ तुमको
मूंदकर पलकें....

रविवार, 22 अप्रैल 2012

देहरी का दीया .... संध्या शर्मा


मैं...
सुबह सबेरे
द्वार पर
रंगोली सजाती
कभी चाँद सी
रोटियां गढ़ती
कभी बर्तनों से बतियाती
बिता देती हूँ सारा दिन
उलझी रहती हूँ
दिन भर
चौके- चूल्हे में
बिन संवरी 
उलझी लटें लेकर
फिर भी....!
साँझ ढले
जाग उठता है
देहरी का दीया 
मुझे देखकर....!

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

"अंजोरिया".... संध्या शर्मा


अंधियारे में ज्योत जगाता 
आया दीप जलाने वाला
 मुरझाये जीवन में हमने 
पाया फूल खिलाने वाला

विरहा के पल-पल से उपजा
मधुर मिलन का बीज निराला 
 क्षितिज ओर से नीलगगन पर
फैला बनकर नया उजाला

अधरों से सुधा रस बरसा
नैनो से झलके मधुशाला
 झूम उठी हर डाली-डाली
पागल हुआ मन मतवाला

गीत ग़ज़ल में झलक उसकी
वह अक्षर की मोती माला
उर की हर धड़कन में गूंजे
राग सरगमिया यादों वाला

भाग्य लिखित जो भी होगा
पाएगा दुनिया में पाने वाला
बस एक नाम ही रह जाएगा
दुनिया का है खेल निराला

सोमवार, 9 अप्रैल 2012

चिताबद्ध होने से पहले..... संध्या शर्मा

इस मशीनी युग में
आविष्कार किये
विकास किये
सभ्यता रची  
सत्य है...
भ्रष्टाचार, आतंकवाद
कट्टरवाद, पाशविकता बढ़ी
बन बैठा स्वयंबैरी
भूल गया तत्व ज्ञान
लोटता रहा
स्वार्थ के कीचड में
बढ़ता रहा
पतन की ओर  
ग्रास बना
अज्ञान असुर के विषदंत का
अब जाग जरा.....
कर वध
अज्ञान असुर का
उठा ज्ञान सुदर्शन
समझ जरा
जब धरा एक
प्राण एक
एक है परमात्मा
फिर जात-पात
धर्म संप्रदाय
अलग क्यों हैं...?
बेकसूरों के खून से लिखे
लाल रंग के इतिहास में
खोज अपना धर्म
बता सभी धर्मों के रक्त का रंग
क्यों है लाल...?
एक प्रश्न है तुझसे
चिताबद्ध होने से पहले.....
     

रविवार, 1 अप्रैल 2012

कौन करेगा उजियारा...? संध्या शर्मा

खोल नयन देखो पल-पल,

बढ़ता जाये है अँधियारा.

भ्रष्ट हुआ हर दीप सलोना,

अब कौन करेगा उजियारा.


कहा बुद्ध ने स्वयं दीप बन,

पथ पर निर्भय बढ़ते जाना.

रुकना नहीं सत्य किरण बन,

तम अमावस का हरते जाना.


आये फिर से बीच हमारे,

दशरथ वचन निभाने वाला,

जन्मे राम जनहित खातिर,

वन गमन जो करने वाला.


धर्मयुद्ध का नायक जन्मे,

गर्वित हर गोकुल ग्वाला.

जमुना तट पर गूंजे बंसी,

राधा का मन हो मतवाला.


अन्याय पर बांह न फ़ड़के,

उसकी बेकार जवानी है.

संतति ऐसी नहीं जनेगी,

अब जननी ने ठानी है. 


पृथ्वी जैसी पावन माता,

तुम हो इसके पूत दुलारे.

काट कलेजा रख देगी ये,

खड़े रहोगे हाथ पसारे.


ठोकर खाकर गिरे अगर,  

मात तुम्हे सहलाएगी.

प्यार करो तुम जननी को,

स्वर्गिक सुख दिखलाएगी.