भारत में तीर्थस्थलाें का अपना सुदीर्घ सिलसिला है। ये तीर्थ केवल भ्रमण के लिए ही नहीं, आत्मिक शांति प्रदान करते हैं और आध्यात्मिक निष्ठा को चिरायु करते हैं। यह तीर्थों का देश है। ग्राम-ग्राम ही नहीं, पर्वत-पर्वत और नदी-नदी भी तीर्थों का सुंदर समागम है। महाराष्ट्र में नागपुर से लगभग 220 किलोमीटर की दूरी पर यवतमाळ व नांदेड जिले की सीमा पर स्थित माहुरगढ़ देवी रेणुकामाता के प्राचीन मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। इसे आदिशक्ति के साढ़े तीन पीठों में से एक पूर्णपीठ माना जाता है। शक्तिसंगम तंत्रादि में देश के जिन शक्तिपीठों की महिमा मिलती है, यह क्षेत्र उनसे अतिरिक्त होकर भी देवी कृपाकांक्षियों के लिए सुख्यात है। नागपुर से करीब छह घंटे माहुर पहुंचने में लगते हैं। देर रात तक यहां पहुंचने वालों का सिलसिला निरंतर रहता है किंतु दर्शनों के लिए सुबह की वेला ही उचित होती है। यहाँ कई दर्शनीय स्थल हैं, जिनके दर्शन पुण्य का सेतु है। कतिपय तीर्थों का परिचय यहां दिया जा रहा है।
अनुसूया माता मंदिर-
यहां आने वाले सर्वप्रथम अनुसूयामाता मंदिर जाना उचित समझते हैं। यह रामायणकाल की स्त्री शक्ति के प्रति श्रद्धा का धाम है। मंदिर तक पहुँचने के लिए लगभग 187 सीढ़ियाँ चढ़नी होती हैं। वैसे शिखर के लिए सीढ़ियों से लगा हुआ एक कच्चा मार्ग भी है, परन्तु आने-जाने वाले सीढ़ी के रास्ते जाने और कच्चे मार्ग से वापसी को उचित बताते हैं। हमने उनका अनुसरण किया। सुन्दर प्राकृतिक परिसर में भव्य मंदिर स्थित है, जहां माता अनुसूया अपने माता-पिता सहित विराजमान है। यहां पहुंचकर नारी की उस शक्ति को बरबस प्रणाम हो जाता है जिसके संकल्पों में सृष्टि की रचना का पराक्रम होता है। यह देवी धैर्य, धर्म की धरा-धुरि सी दिखाई देती है।
दिव्य दत्तशिखर -
इसके पश्चात् दत्तशिखर की ओर कदम बढ़ते हैं। यहाँ पहुँचना बहुत आसान होता है। गाड़ी सीधे मंदिर के द्वार तक पहुँच जाती है। मंदिर का मुख्यद्वार बड़ा ही आकर्षक और विशाल है. यह स्थापत्य ही जन जन में इसके श्रद्धाधाम होने का सूचक है। दत्तात्रेय की पूरे सह्याद्रि क्षेत्र से लेकर दक्षिण तक विशेष मान्यता रही है। पुराणों में दत्तात्रेय की महिमा मिलती है और यहां पहुंचकर शब्दों की सत्ता के भी दर्शन होते हैं। सुन्दर प्राकृतिक परिसर में भव्य मंदिर स्थित है, जहाँ भगवान दत्तात्रय की मनोहारी मूर्ति शोभायमान है. कहा जाता है कि इस स्थान पर भगवान् दत्तात्रय ने तपस्या की थी जिसके कारण यह "दत्तशिखर" के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यूं भी साधना के शिखर पर चढ़कर महात्माओं ने देश के कई कई पर्वत शिखरों को प्राणमयी ऊंचाइयां प्रदान की है। दत्तशिखर के समीप ही एक पुराना किला भी है। यह बहमनी सुलतान के राज्य का हिस्सा था तथा स्वतंत्रता के पूर्व इस स्थान पर हैदराबाद के निज़ाम का राज था।
महिमामय माहुरगढ़ -
इसी क्षेत्र में माहूर गांव से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर भगवती रेणुकादेवी का प्राचीन मंदिर है। महाराष्ट्र में प्रासादों की एक स्थानीय शैली रही है- हेमाड़पंथी। इस शैली में ही यह मंदिर निर्मित है। पर्वतीय अंचलों में अनुकूलता के अनुसार प्रासादों का निरापद निर्माण हुआ जो मौसम सहित जन-मन के लिए विहारी माने जाते हैं। यहां यह विशेषता लगती है ही। यह मंदिर एक चारु पहाड़ी पर अपने शिखर को नई ऊंचाइयां देता प्रतीत होता है। ऐतिहासिक स्रोत सिद्ध करते हैं कि इस मंदिर की नीव देवगिरी राज्य के यादव राजा ने 9वीं शताब्दी में डाली थी। दशहरा यहां का मुख्य उत्सव है। यहां नवरात्रा के साथ ही देवी रेणुका की पूजा की जाती है। देवी रेणुका जामदग्न्य परशुराम की माता है और किंवदन्ती के अनुसार भगवान् विष्णु की अंशीभूत मानी जाती हैं।
महेंद्र पर्वत से लेकर इस इलाके तक परशुराम चरित्र के अनेक पड़ाव देखने को मिलते हैं।मंदिर अपने चारों तरफ घने पेड़ों से घिरा हुआ, और बड़ा ही रमणीक प्रतीत होता है और लगता कि प्रासादों के निवेश के लिए ग्रंथों में जिन स्थान-अर्हताओं काे बताया गया है, वे यहां पूरी तरह मिलती है। सचमुच यह देवधाम, देवस्थान लगता है। मंदिर तक पहुँचने के लिए लगभग 287 सीढ़ियाें को चढ़ना पड़ता है। यह मार्ग भी सुरम्य, छायादार, सुगम्य, सुविधाजनक बनाया गया है। भव्य मंदिर में सर्वप्रथम भगवान परशुराम झूले में विराजमान हैं। मंदिर के गर्भगृह में माता रेणुका एक मुखाकृति अथवा मुखौटे के रूप में विराजमान हैं और पूजान्तर्गत है। देवी को विशेष तौर पर 'ताम्बूल' का भोग लगाया जाता है। यह संयोग ही है कि प्रतिमाशास्त्रों में अनेक देवियों को तांबूलप्रिया कहा गया है। उनके हाथों में भी तांबूल पात्र को एक आयुध के समान कहा गया है। यहां पहुंचकर शास्त्रों की मान्यताओं को जीवंत देखने का अवसर भी मिलता है।
मंदिर से जुड़ा पौराणिक प्रसंग -
परशुराम आख्यान पौराणिक रूप में ख्यात रहा है। रेणुका भगवान परशुराम की माता थी। ऋषि जमदग्नि को परशुराम के पिता थे। ऋषि जमदग्नि शीघ्रकोपी स्वभाव के थे। माता रेणुका रोजाना ही पास की नदी से पानी लाने जाती थी। एक दिन उन्हें नदी किनारे कुछ गन्धर्व नृत्य करते हुए और गांधर्व गान करते दिखाई दिए। वे उन गन्धर्वों के नृत्य संगीत को देखने में इतनी मग्न हो गईं कि समय का ध्यान ही न रहा। उन्हें लौटने में विलंब हो गया। इस कारण ऋषि जमदग्नि इतने क्रोधित हुए कि उन्होंने अपने पुत्रों को देवी रेणुका के वध की आज्ञा दे दी. किसी अन्य पुत्र में ऐसा करने का साहस नही हुआ, परन्तु पिता की आज्ञा मानकर परशुराम ने अपना परशु अपनी ही माता पर चला दिया। यह साहस अपूर्व और अप्रत्याशित था। हालांकि परशुराम बहुत परेशान हो गए किंतु जगदग्नि की क्रोधाग्नि शांत हो गई। ऋषि ने प्रसन्न होकर पुत्र से वरदान मांगने को कहा तो पशुराम ने अपनी माता को पुनजीर्वित करने का निवेदन किया। जमदग्नि ने कहा- पुत्र तुम अपनी माता को पुकारते हुए आगे बढ़ो, वे स्वयं तुम्हारे पीछे आएंगी, लेकिन तुम्हे पीछे पलटकर नही देखना होगा। पितृभक्त परशुराम ने वैसा ही किया। कुछ दूर चलने के बाद ही परशुराम ने पीछे मुड़कर देख लिया। उसी समय माता रेणुका मुखौटे में परिवर्तित हो गई। कहते हैं कि वही इस माहुर पर्वत पर विराजमान हैं।
विनायकों का वैभव -
माहुर से नागपुर के बीच विदर्भ के अष्टविनायकों में से केलझर नामक छोटे से गांव की पहाडी पर विराजे अष्टविनायक एवं नागपुर यवतमाल रोड पर कलंब नामक गांव की एक बावडी में स्थित चिंतामणि गणपति के दर्शन भी इस यात्रा की महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी जाती है। इस पूरे ही क्षेत्र में विघ्न विनायक का वैभव माना जाता है। मुद्गल पुराण और गणेशपुराण में इन गजानन की महिमा का गुणगान मिलता है, मगर आंखों से प्रत्यक्ष देखने का जाे लाभ यहां आकर मिलता है, वह दिव्य और दुर्लभ तो है ही, वर्णन के विषय से परे भी है।
अच्छी जानकारी और सुन्दर यात्रा वृतांत
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी और सुन्दर यात्रा वृतांत
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी.
सुन्दर यात्रा वृतांत
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