इंतज़ार छाँव काबोया था एक नन्हा सा बीज,
इस छोटे से आँगन में,
सींचा था सहलाया था,
उसे तेज धूप से बचाया था,
फूटी उसमे नन्ही - नन्ही पाती,
उसकी एक पत्त्ती भी कुम्हलाती,
तो जैसे जान ही निकल जाती,
सोचा था बड़ा होकर फल देगा,
सुकून भरी ठंडी छाँव देगा......
अब जब वो बड़ा हो गया है,
छोड़कर मेरे आँगन को ,
चला गया दुसरे के आँगन में,
उन्हें फल भी देता है, छाँव भी,
और मै............
अभी भी वहीँ खड़ा हूँ,
वही तपन है अब भी आँगन में,
सोचता हूँ ...................
लगा लूँ फिर से नया पौधा ???
पर क्या वो भी होकर बड़ा,
सहारा देगा मुझे फल, और छाँव का,
क्या ?? कर पाऊँगा इंतजार मैं,
उसके फल और छाँव का ......................................
बहुत ही सुंदर मर्मस्पर्शी /
जवाब देंहटाएंमाँ बड़े जतन से बच्चो को पालती है /
मगर बड़े होकर वे ...???
एक श्रींगार रस से भरी कविता के लिए मेरे ब्लॉग पर आये /
वाह !! एक अलग अंदाज़ कि रचना ......बहुत खूब
जवाब देंहटाएंआप लोगों को प्रशंशा के लिए धन्यवाद ...
जवाब देंहटाएंबस कुछ मन ने कहा और बन गई कविता...