लम्हा नहीं थी एक मैं जहान में सदा रही हूँ,
ख़यालों में रहे हमेशा मैं तुमसे जुदा नही हूँ.
किस्से गढे इस जीस्त-ए-सफ़र ने हजारों बार ,
शेर-ए- हक़ीक़ी मैं कब से गुनगुना रही हूँ.
ग़म-ए-दौरां में मिलती कैसे हैं ये खुशियाँ,
दिल-ए-नादां तुझे मैं कब से समझा रही हूँ.
दिल-ए-नादां तुझे मैं कब से समझा रही हूँ.
मुमकिन हैं पहचान लेगें इक दिन वे मुझे,
अफ़साना-ए-दिलबर मैं कब से सुना रही हूँ.
बुझ गए चौबारे के दीये इंतजार-ए-यार में,
उन्हें क्या मालूम इन्हें कब से जला रही हूँ.
ख़ुदा करे विसाल-ए-यार हो वह दिन भी आए,
मंज़िल की ज़ानिब अब मैं कदम बढा रही हूँ.
waah bahut sundar .....
जवाब देंहटाएंलम्हा नहीं थी एक मैं जहान में सदा रही हूँ,
जवाब देंहटाएंख़यालों में रहे हमेशा मैं तुमसे जुदा नही हूँ.
............. वाह क्या बात प्रभावी अंदाज़ है आपकी लेखनी में संध्या जी
खूब .... उम्दा पंक्तियाँ रची हैं
जवाब देंहटाएंवाह....बेहतरीन ग़ज़ल..
जवाब देंहटाएंबुझ गए चौबारे के दीये इंतजार-ए-यार में,
उन्हें क्या मालूम इन्हें कब से जला रही हूँ.
उम्दा शेर!!
सस्नेह
अनु
ग़म-ए-दौरां में मिलती कैसे हैं ये खुशियाँ,
जवाब देंहटाएंदिल-ए-नादां तुझे मैं कब से समझा रही हूँ. ...सुन्दर पंक्तियों के साथ.बहुत उम्दा गज़ल..
बहुत उम्दा ग़ज़ल...
जवाब देंहटाएंकिस्से गढे इस जीस्त-ए-सफ़र ने हजारों बार ,
जवाब देंहटाएंशेर-ए- हक़ीक़ी मैं कब से गुनगुना रही हूँ. .. बहुत खूब क्या कहने .. सभी अश आर जबरदस्त. बधाई स्वीकारें आदरणीया ..
वाह ! वाह ! आप तो बेहतरीन ग़ज़ल लिखती है | लाजवाब |
जवाब देंहटाएंबढ़िया लिखा है |
जवाब देंहटाएंआशा
बुझ गए चौबारे के दीये इंतजार-ए-यार में,
जवाब देंहटाएंउन्हें क्या मालूम इन्हें कब से जला रही हूँ...
इतना मासूम न समझिए उन्हें ... हवा कह देती है हर फ़साना ...
लाजवाब गज़ल है ...
बेहतरीन लाजवाब गजल
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