मंगलवार, 1 जुलाई 2014

लफ़्ज़ों की छांव में..!



 चित्र- गूगल से साभार 

सोचती हूँ चलते-चलते
लड़खड़ाती साँसों के सफ़र में
कुछ ऐसा लिख जाऊं जिसमें
ताज़गी हो, उम्मीदें हों
रौनक हो, खुशियां हो 
जीवन की तेज़ धूप से झुलसा
हर एक आने वाला
इन लफ़्ज़ों की छांव में
राहतों की ठंडक पाए
कब लफ्ज़ बिखर जाएं
कब ये हाथ कंपकंपाएँ
जाने कब चिता के साथ
कागज़ भी राख बन जाए
राख बन चुके कागज़ में
कुछ देर तो चमकेंगे हर्फ़
वरना क्या फर्क पड़ता है
एक मेरे होने ना होने से
वैसे भी कोई नही आया
इस नश्वर लोक में
अमरफ़ल खाकर………।

17 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर..... जीवन को इस दृष्टिकोण से भी देखा जाय

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  2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  3. वैसे भी कोई नही आया
    इस नश्वर लोक में
    अमरफ़ल खाकर………।
    सच है ....अच्‍छी रचना !!

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  4. बहुत सुंदर आशावादी दृष्टि कोण....

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  5. ब्लॉग बुलेटिन की 900 वीं बुलेटिन, ब्लॉग बुलेटिन और मेरी महबूबा - 900वीं बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  6. हम नहीं होंगे तो क्या ,हमारा किया हुआ कुछ समय तक भी आनेवालों को सुख-शान्ति दे सके तो वह सार्थक है- रचना सुन्दर है !

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  7. संध्या जी ...बहुत सकारात्मक भाव ...प्रेरणा दे रहे हैं ....!!

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  8. अंतस को झकझोर देने वाली मार्मिक रचना...

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  9. वरना क्या फर्क पड़ता है
    एक मेरे होने ना होने से
    वैसे भी कोई नही आया
    इस नश्वर लोक में
    अमरफ़ल खाकर………।
    ...बिल्कुल सच...

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  10. क्या फर्क पड़ता है एक मेरे होने ......लाजवाब .....सच कहा अपने उद्गारों को शब्दों के माध्यम से ही हम संसार में अपने पीछे छोड़ जाते हैं |

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  11. जीवन का सूक्ष्म सत्य तो यही है पर जब तक हैं हम तब तक तो हमसे ही है ज़माना..सुन्दर लिखा है..

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  12. भावनाओं की स्‍याही कभी-कभी यूँ भी ख्‍यालों के साथ बहती है ....
    बेहतरीन भाव संयोजन

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  13. बहुत अच्छा लिखा आपने पढ़कर ऐसा लगा जैसे आपने मेरे ही मन की बात लिख दी हो
    कभी मौका मिले तो मेरे ब्लॉग पर भी पधारें
    http://kaynatanusha.blogspot.in/

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