मुक्ति पा लेता है........!
अपराधी एक बार सूली पर चढ
वह निरपराध पेट की खातिर
सूली पर चढती है रोज - रोज
रस्सी पर डगमगाते नन्हे पाँव
किसी के लिए मनोरंजन भले हो
इसके लिए साधन है पेट भरने का
मौत के खेल को तमाशा बना
नन्हे नन्हे कदम आगे बढाती वह
जब सुनती है तालियों की आवाजें
तो डर से सहम सी जाती है
बहकने लगती उसकी चाल
वह तुरंत साध लेती है खुद को
क्योंकि डगमगाना कारण बन जाएगा
उसके परिवार के भूखे रहने का
अभी उसे तो उस पार जाना है
जीवन और मृत्यु का करतब दिखाना है
और रोज जीतना है मृत्यु को
निरपराध होकर भी
यही नियति है……………।
निरपराध होकर भी
जवाब देंहटाएंयही नियति है……………।
बहुत बढ़िया !!
जवाब देंहटाएंकडवी सच्चाई की खुबसूरत अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंहार्दिक शुभकामनायें
"क्योंकि डगमगाना कारण बन जायेगा उसके परिवार के भूखे रहने का" ....बस यही संबल प्रदान करता है उसे...सृष्टि है ईश्वर रचित....
जवाब देंहटाएंएक जून की रोटी के लिए खेलना पड़ता है मौत से निस दिन। नटों के साथ आम मजदूर की जिन्दगी भी यही है। वह जब घर से बाहर निकलना है रोजी रोटी के लिए तो पता नहीं रहता कि शाम को लौटकर घर आ पाएगा। कहीं घटिया सामग्री से निर्मित हो रही किसी बिल्डिंग की बलि चढ जाएगा या फ़िर सड़क पर दौड़ रहे परलोकवाहक का ग्रास बन जाएगा। जिन्दगी अब मौत का कुंआ हो गई है, हर शो के बाद ईश्वर का धन्यवाद करना पड़ता है। आपने इस जीजिविशा की इस पीड़ा को सरल-सहज शब्दों में ढालकर नूतन शिल्प की रचना की है। बिंब भी चित्र खींच रहें हैं। शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंजीवन मृत्यु का खेल .... बस दो रोटी का मोहताज़ बन के रह जाता है ...
जवाब देंहटाएंबहुत ही कडवे सक्स्च को लिखा है ...
मार्मिक रचना
जवाब देंहटाएंसुंदर ।
जवाब देंहटाएंbahut sundar ... bahut maarmik evam yatharth bayan karti hui..
जवाब देंहटाएंबेहतरीन .....
जवाब देंहटाएंसच! नियति के कठपुतली हैं सब..सुन्दर रचना..
जवाब देंहटाएंझकझोरने वाली रचना !
जवाब देंहटाएंसच्चा कवि हृदय वही जो गरीब के मन से खुद को जोड़ सके, उसकी पीड़ा को न केवल महसूस कर सके वरन दूसरों में मानवीय संवेदना जगा भी सके। इस दृष्टि से आपकी कविता बहुत अच्छी लगी।
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