यह कविता तो पुनः पोस्ट की है हमने, इसलिए इसे आप पहले भी पढ़ चुके हैं. अब सुनिए हमारी आवाज़ में :) (पहली बार कोशिश की है)
करती हूँ अभिनय
करती हूँ अभिनय
आती हूँ रंगमंच पर प्रतिदिन
भूमिका पूरी नहीं होती
हर बार ओढ़ती हूँ नया चरित्र
सजाती, संवारती हूँ
गढ़ती हूँ खुद को
रम जाती हूँ रज कर
कि खो जाये "मुझमे"
"मैं" कहीं....
अब तो हो गई है आदत
किरदार निभाने क़ी
हर आकार में ढल जाती हूँ
पानी सी.....
पहचान खोकर शायद
पा सकूँ खुद को
समंदर में सीप तो बहुत मिल जाते हैं
सीप में मोती हर किसी को नहीं मिलता.
कविता सुनने के लिए प्लेयर को प्ले करें
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (01.08.2014) को "हिन्दी मेरी पहचान " (चर्चा अंक-1692)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
जवाब देंहटाएंहर दिन एक नया कीरदर जीना ही जिंदगी है |
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट माँ है धरती !
ब्लॉग बुलेटिन की आज गुरुवार ३१ जुलाई २०१४ की बुलेटिन -- कलम के सिपाही को नमन– ब्लॉग बुलेटिन -- में आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ...
जवाब देंहटाएंएक निवेदन--- यदि आप फेसबुक पर हैं तो कृपया ब्लॉग बुलेटिन ग्रुप से जुड़कर अपनी पोस्ट की जानकारी सबके साथ साझा करें.
सादर आभार!
हर किसी को अपनी भूमिका निभानी होती है इस दुनिया के रंगमंच में ..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
बहुत गहरी बात...
जवाब देंहटाएंखुबसूरत आवाज में उम्दा अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंहार्दिक शुभकामनायें
बहुत बढ़िया , आवाज़ और शब्द दोनों प्रभावी
जवाब देंहटाएंबेहतर प्रयास .... !!!!
जवाब देंहटाएंवाह ... आवाज़ और कविता दोनों दमदार ...
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुभकामनायें ...
वाह.... मज़ा आ गया.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ...
जवाब देंहटाएंमण की गहताईयोन से निकली अभिव्यक्ति बधा ई
जवाब देंहटाएंवाह.. आवाज़ और कविता दोनों दमदार
जवाब देंहटाएंसुंदर-मधुर-म
जवाब देंहटाएंyahi roop hai asal me kavita ka. sunder
जवाब देंहटाएंकविता सुन नही पाई पर कविता सुंदर है.
जवाब देंहटाएं