बुधवार, 30 मई 2012

अधूरी कविता...संध्या शर्मा

जीवन के केनवास पर
आज फिर नए रंग
नयी तूलिका के साथ
कब से बना रही हूँ
एक तस्वीर
आड़ी टेडी
सीधी रेखाएं
क्या बना रही हैं
मैं खुद नही समझ सकी
क्यों है ये रंगों का बिखराव
क्यों है रेखाओं का उलझाव
क्यों नहीं दे रही तूलिका साथ

बुधवार, 23 मई 2012

खत... संध्या शर्मा

छूटा माँ का साथ
बहन की होगी मजबूरी
तू तो मेरा अपना है
मन है तुझे देखने का
कुछ अंतिम बातें करने का
रीत गईं साँसे
बिसरा ना बचपन
देर न करना
कहीं भूल न जाना
मुझसे मिलने जल्दी आना
यही लिखा था ना तुमने
कांपती कमजोर उँगलियों से
पास आती मौत के साथ
दिखता था आँखों में इंतजार
ख़त का नहीं उस अपने का
ऐसा नहीं कि तुम अकेली थी
हम सब थे तुम्हारे अपने
कैसे भूल सकती थी तुम
बचपन का साथ
वह नहीं आये
तुम चली गईं
देकर सारा प्यार
लेकर इंतजार
मिला था ना तुम्हे
उनका जवाब
तुम्हारे जाने के
ठीक तीन दिन बाद
तुम्हारी तस्वीर के आगे
जलते दीये, हार और
सुलगते चन्दन के साथ....

मंगलवार, 22 मई 2012

ठिकाना...संध्या शर्मा


रफ़्ता रफ़्ता घर को सजाना होगा,
सपनों की जन्नत को बसाना होगा.

कभी तो आएगा चलकर यहाँ वो,
सफ़र में जो मुसाफ़िर बेगाना होगा.

दर्द दिया है जो उस जालिम ने,
रफ़्ता रफ़्ता उसे भी भुलाना होगा.

वस्ल की बात हो तो क्या कहने,
गमों को बंदनवार सा सजाना होगा.

बहुत भटके इस जहाँ में सितमगर,
गर वो मिल जाएं तो ठिकाना होगा.

शनिवार, 19 मई 2012

आकांक्षा... संध्या शर्मा


खूब सो लिए जाग जाओ न, 
तुम आलस दूर भगाओ न.

कल कर लेना कल की बातें,
तुम गीत सुहाने दुहराओ न.

गहरे सागर से चुन-चुन कर,
चमकीले मोती ले आओ न .

जीवन की उर्वर धरती पर,
कुछ अपना सा बो जाओ न .

इन्द्रधनुष सा बनकर चमको,
तुम बादल जैसे छा जाओ न .

सांझ बीत गई रात आ गई,
अब चाँद को घर ले आओ न .

शनिवार, 12 मई 2012

एक बार जन्म लेने दे माँ... संध्या शर्मा

नन्हे-नन्हे पाँवों से चलके
सुन तेरे घर मे आऊंगी मैं
होगी तेरे घर रोज दीवाली
इतनी खुशियाँ लाऊंगी मैं
 
नाज़ुक उंगलियों से तेरा
हाथ पकड़ना है मुझको
कोमल होठों से माँ तेरा
नेह स्पर्श करना मुझको
 
तोतली बोली में तुझको
मधुर गीत सुनाऊंगी मैं
तू जब थक जाएगी तो
तेरा मन बहलाऊंगी मैं
 
मैं कोई जिद नहीं करुँगी
मेरी साँसों को चलने दो
मत मारो मुझे कोख में

एक बार जन्म लेने दो

तुझे पुकार छुप जाऊँगी
थोडा चिढ़ाकर हंस लूँगी
कभी घोड़ा बनाकर तुझे
तेरी पीठ पर चढ लूंगी
 
सताउंगी झूठी कुट्टी करके
तेरे डांटने से नहीं चिढूंगी
नाराज न होऊंगी तुझसे
कभी न  तुझसे मै रूठूंगी 
 
मुझे खुद से दूर ना कर
मुझे जन्म लेने दे माँ
सुंदर जग मैं भी देखूं
मुझे
जग मे आने दे माँ
 
गहने पहन श्रृंगार करके
तुझ सी चोटी लहराऊंगी
तेरे जैसी पहनूंगी साड़ी
छवि तेरी सी दिखलाऊंगी


पापा की मुंह लगी रहूंगी 
उनसे शैतानी खूब करुंगी
अचंभे से मुस्काएगें पापा
जब अव्वल दर्जे आऊंगी
 
सब मुझे प्यार से देखेंगे
मुझमें दिखेगी तेरी सूरत
लेगा मन में स्नेह हिलोरें
तब चूमेगी तू मेरी मूरत
 
बड़ी होकर ससुराल जाउंगी
नाम तेरा मैं खूब करुंगी
एक भी बदनामी का दाग
तेरे माथे पे लगने न दूंगी
 
विदा जब करेगी मुझे तू
तेरे नयन भर न आयेंगे
जब कहेगें बेटी हो मुझसी
नयन तेरे बस छलक जाएगें
 
वादा सुन ले मेरा तू  माँ
दूर रहकर भी पास रहूंगी
दु:ख हर
लूंगी तेरे सब मैं
हरपल बनके आस
रहूंगी

तेरा सुख मेरा सुख माना
मेरा जीवन अर्पण है माँ
मुझे मार ना विनय तुझसे
एक बार जन्म लेने दे माँ

बुधवार, 9 मई 2012

शब्दाकुंरण... संध्या शर्मा

कुछ शब्द मेरे

जो होठों तक आकर

अचानक पलटे

अंतस में गहरे उतरे

एक बीज की तरह

हाड मांस की उर्वरता

रक्त का सिंचन पाकर

अंकुरित, पल्लवित होकर

धीरे-धीरे फ़ूलने भी लगे

उगी हरी-हरी डालियाँ

झूमने लगी अब


विस्तारित होने लगी

अन्तर मन तक

उन शब्दों की डालियाँ 

जिन्हें मैं बोल ना सकी

अब वे फ़लने लगे हैं…

शुक्रवार, 4 मई 2012

मनसरोवर के गीत ..... संध्या शर्मा

चातक की तरह 
स्वाति बूंदों को तरसती 
खुली सीप जैसी निर्जल आँखें 
मस्तिष्क में चलती रेतीली आंधियां 
ह्रदय में चुभते यादों के कांटे
मन के मानसरोवर में 
मौन गीतों के राजहंस 
अंतिम घड़ियाँ, अंतिम साँसें 
जीवन का सारांश खोजती 
कल्पना की आँखों से देखती वह 
दूर क्षितिज पर ढलता सूरज 
धौंकनी सी सांस लिए 
उत्तुंग शिखर पर चढ़ती जा रही है 
हाथों में थामे मौन गीतों की माला 
मद्धम पड़ती मंदिर की घंटियों की आवाजें 
तभी अचानक.....!
टूट गई मौन गीतों की माला 
बिखर गए मोती-मोती 
पथरा गई सागर सी गहरी आँखें 
उभर आया उनमे अंतिम दृश्य 
स्वर्णिम संध्या बेला 
छोटा सा सूना आँगन 
एक कोने में जलता नन्हा सा दीप 
जो चीर रहा है तम को 
फ़ैल रहा है चारों दिशाओं में 
प्रकाश-प्रकाश और प्रकाश....