बुधवार, 9 मई 2012

शब्दाकुंरण... संध्या शर्मा

कुछ शब्द मेरे

जो होठों तक आकर

अचानक पलटे

अंतस में गहरे उतरे

एक बीज की तरह

हाड मांस की उर्वरता

रक्त का सिंचन पाकर

अंकुरित, पल्लवित होकर

धीरे-धीरे फ़ूलने भी लगे

उगी हरी-हरी डालियाँ

झूमने लगी अब


विस्तारित होने लगी

अन्तर मन तक

उन शब्दों की डालियाँ 

जिन्हें मैं बोल ना सकी

अब वे फ़लने लगे हैं…

17 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर विचार कविता भाव बोध को सम्मोहित करती! हाँ आइन्दा पेड़ों पर ही उगेंगें शब्द बनेगें खुद अपनी खाद पेड़ों की ही मानिंद . ..बधाई स्वीकार करें . .कृपया यहाँ भी पधारें -
    बुधवार, 9 मई 2012
    शरीर की कैद में छटपटाता मनो -भौतिक शरीर
    http://veerubhai1947.blogspot.in/
    आरोग्य समाचार
    http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/2012/05/blog-post_09.हटमल
    क्या डायनासौर जलवायु परिवर्तन और खुद अपने विनाश का कारण बने ?
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  2. बहुत सुंदर भावभिव्यक्ति ...शब्दों का अंकुरण ... सुंदर बिम्ब

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  3. बहुत सुंदर भाव...... बेहतरीन बिम्ब

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  4. जब फल पाक जाएँ तो उसकी मिठास , उअका कसैलापन , उसका स्वाद , बेस्वाद साझा कीजियेगा ... क्योंकि उन अनुभवों का अपना एक मूल्य है

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  5. अन्तर मन तक
    उन शब्दों की डालियाँ
    जिन्हें मैं बोल ना सकी
    अब वे फ़लने लगे हैं…

    रचना भाव बहुत अच्छे लगे......

    MY RECENT POST.... काव्यान्जलि ...: कभी कभी.....

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  6. सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति...

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  7. सुन्दर और अर्थपूर्ण शब्दों से भरी पोस्ट।

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  8. कोई भी भाव मरते नहीं ..
    मौके की तलाश में होते हैं ..
    अंकुरण भी होता है पल्‍लवन भी ..

    बहुत खूब लिखा !!

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  9. निःशब्द कर दिया है..... बेहद ख़ूबसूरत और उम्दा रचना....संध्या जी

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  10. बेहतरीन अर्थपूर्ण रचना.....
    बहुत ही बढ़िया....

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  11. और उन्मत्त होकर हमें भी मदमाने लगे हैं..अति सुन्दर...

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  12. नि:शब्द कर दिया आपकी रचना ने, शब्द संयोजन, बिंब एवं शिल्प सराहनीय है। यूं ही लिखते रहें।

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  13. बहुत सुंदर ! शब्दों का यह अंकुरण आगे बढ़े...

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  14. संवेदनशील रचना अभिवयक्ति....

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