रसोई - घर- आंगन
खेत - खलिहान
चकरघिन्नी सी
फिरती रहती है
दिन भर वह
जीवन सहेजने की
कोशिश में
खुद को निहारे
वर्षों बीत गए
तरुणाई की जगह
कब झुर्रियों ने ले ली
इस तेज़ दौड में
एहसास तक नहीं
उसके थके क़दमों को
आराम की आस नहीं
आज भी खोजती है
अपने अस्तित्व को सिर्फ
सिन्दूर, चूड़ी, महावर में
ना जाने कब कर सकेगी
अपने व्यक्तित्व का विस्तार
दे सकेगी बंधन से परे
अस्तित्व को सही आकार ......??
विचारणीय प्रश्न ...मन को छू गयी आपकी रचना
जवाब देंहटाएंमन को छू लेनेवाली संवेदनशील रचना....
जवाब देंहटाएंसंवेदनशील सुंदर सृजन...!
जवाब देंहटाएंRECENT POST - पुरानी होली.
अपने व्यक्तित्व का विस्तार
जवाब देंहटाएंदे सकेगी बंधन से परे
अस्तित्व को सही आकार ......??
..............कितनी सकारात्मकता है इन शब्दों में .. प्रेरित करती अभिव्यक्ति बहुत ही अच्छी लगी .. आभार सहित शुभकामनाएं ।
vicharniy gambheer abhivyakti sandhya ji .very nice .
जवाब देंहटाएंयह सच है कि वह स्वयं अपने लिए कुछ नहीं बचाती ,अपना पूरा निजत्व बाँट देती है सब में -इसे व्यक्तित्व का विस्तार कहें या विलीनीकरण ?
जवाब देंहटाएंअच्छी है।
जवाब देंहटाएंनारी ही दे सकती है अपने अस्तित्व को आकार ... हिम्मत जगानी होगी ...
जवाब देंहटाएंजिन्दगी इसी का नाम है
जवाब देंहटाएंवाह .... बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंसुंदर
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