मंगलवार, 19 जून 2012

बरखा ... संध्या शर्मा



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कब आऊं?
बरखा ने पूछा
जब इच्छा हो
मैंने कहा
कितना भी भीगो
सूखी ही रहोगी
वह मुस्कुराकर बोली
तुम सुनाने लगे कहानी
एक दिन....!
तुम और मैं साथ-साथ
बैठे थे जिस कागज़ की नाव पर
भिगो गई थी यह उसे
पलट गई थी वह
तब से बैर हो गया
तुमसे बरखा का
वह अलग बरसती रही
तुम अलग
मैं खड़ी रह गई
दोनों के बीच
सूखी नदी की तरह
उमस बढ़ी
अंतस तपता रहा
आज बीज बोने के बाद
स्वीकार कर पाए तुम उसे
बस इतना ही कह सके
कभी तो आएगी वह
राह देखेंगे मिलकर....

23 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर..........
    मुझे तो भिगो गयी..........

    सस्नेह

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  2. मनोभावों का सहज सम्प्रेषण ....!

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  3. बरखा से बैर ... वो भी इतना की भिगो नहीं पाती वो बरसने के बावजूद ... गहरी कल्पना ...

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  4. अंतस तपता रहा .... अब तो स्वीकार कर लिया न ? भिगो ही देगी बरसा अब तो .... बहुत सुंदर रचना

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  5. बड़ी सुन्दरता से बांधा है भावों को कविता में

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  6. सरल मनोभावों की प्रस्तुति .... अति सुंदर ....

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  7. भीगी=भीगी सी सुन्दर रचना...

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  8. बरखा के एक नए रूप से आवगत करवाया हैं आज आपने ..बहुत खूब

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  9. बहुत ही सुन्दर भाव संध्याजी ....!!!!

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  10. बहुत ही बढ़िया
    कोमल भाव लिए रचना.

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  11. वाकई सुंदर है यह रचना ...
    बधाई !

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  12. कभी तो आएगी वह
    राह देखेंगे मिलकर....

    सुंदर रचना ..जागी रहे आस ...शुभकामनायें..

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  13. बहुत सुन्दर और मन मोहती रचना |
    आशा

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  15. वह अलग बरसती रही
    तुम अलग
    मैं खड़ी रह गई
    दोनों के बीच
    सूखी नदी की तरह

    ....बहुत कोमल अहसास..सुन्दर भावपूर्ण रचना...

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  16. बहुत सारगर्भित पक्तियां। हर शब्द का चयन अच्छा लगा । मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है धन्यवाद।।

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