बुधवार, 19 अगस्त 2015

इतिहास के झरोखे से : रानी दुर्गावती...

जन्म स्थान होने की वजह से अनेको बार इस स्थान को देखा है, उस वक़्त भी जब यह पर्यटकों के लिए पूर्णतः खुला था। आजकल इस किले की ऊपरी मंज़िल पर जाने वाली सीढ़ियों पर सुरक्षा की दृष्टि से ताला लगा दिया गया है.

गढ़ा की मुख्य सड़क से अंदर के रास्ते पर सुन्दर प्राकृतिक दृश्यों के साथ-साथ काले पत्थर अनेक रूपों में दिखाई देते हैं, जिसमे से एक विश्व प्रसिद्ध संतुलित शिला भी है. 
    
जबलपुर के मदन महल में एक पहाड़ी पर स्थित गोंड रानी दुर्गावती का किला जो लगभग सन् १११६ मे राजा मदन शाह द्वारा बनवाया गया था। आज भी उनके अनुपम तेज, साहस, शौर्य और सुन्दरता की कहानी कहता शीश उठाये खड़ा है। 


महारानी दुर्गावती कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की एकमात्र संतान थीं। महोबा के राठ गांव में 1524 ई0 की दुर्गाष्टमी पर जन्म के कारण उनका नामदुर्गावती रखा गया। नाम के अनुरूप ही तेज, साहस, शौर्य और सुन्दरता के कारण इनकी प्रसिद्धि सब ओर फैल गयी। दुर्गावती के मायके और ससुराल पक्ष की जाति भिन्न थी लेकिन फिर भी दुर्गावती की प्रसिद्धि से प्रभावित होकर गोंडवाना के राजा संग्राम शाह ने अपने पुत्र दलपत शाह से विवाह करके, उसे अपनी पुत्रवधू बनाया था।


दुर्भाग्यवश विवाह के चार वर्ष बाद ही राजा दलपतशाह का निधन हो गया। उस समय दुर्गावती की गोद में तीन वर्षीय नारायण था। अतः रानी ने गढ़मंडला का शासन संभाल लिया। 
रानी दुर्गावती के इस सुखी और सम्पन्न राज्य पर मालवा के मुसलमान शासक बाजबहादुर ने कई बार हमला किया, पर हर बार वह पराजित हुआ। तथाकथित महान मुगल शासक अकबर भी राज्य को जीतकर रानी को अपने हरम में डालना चाहता था। उसने विवाद प्रारम्भ करने हेतु रानी के प्रिय सफेद हाथी (सरमन) और उनके विश्वस्त वजीर आधारसिंह को भेंट के रूप में अपने पास भेजने को कहा. रानी ने यह मांग ठुकरा दी.

इस पर अकबर ने अपने एक रिश्तेदार आसफ खां के नेतृत्व में गोंडवाना पर हमला कर दिया. एक बार तो
आसफ खां पराजित हुआ, पर अगली बार उसने दुगनी सेना और तैयारी के साथ हमला बोला। दुर्गावती के पास उस समय बहुत कम सैनिक थे। उन्होंने जबलपुर के पास नरई नाले के किनारे मोर्चा लगाया तथा स्वयं पुरुष वेश में युद्ध का नेतृत्व किया। इस युद्ध में 3,000 मुगल सैनिक मारे गये लेकिन रानी की भी अपार क्षति हुई थी।

अगले दिन 24 जून 1564 को मुगल सेना ने फिर हमला बोला. आज रानी का पक्ष दुर्बल था, अतः रानी ने अपने पुत्र नारायण को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया. तभी एक तीर उनकी भुजा में लगा, रानी ने उसे निकाल फेंका. दूसरे तीर ने उनकी आंख को बेध दिया, रानी ने इसे भी निकाला पर उसकी नोक आंख में ही रह गयी। तभी तीसरा तीर उनकी गर्दन में आकर धंस गया।
रानी ने अपना अंत समय निकट जानकर वजीर आधारसिंह से आग्रह किया कि वह अपनी तलवार से उनकी गर्दन काट दे, पर वह इसके लिए तैयार नहीं हुआ। अतः रानी अपनी कटार स्वयं ही अपने सीने में भोंककर आत्म बलिदान कर दिया।महारानी दुर्गावती ने अकबर के सेनापति आसफ़ खान से लड़कर अपने आत्म बलिदान से पूर्व पंद्रह वर्षों तक शासन किया था।

जबलपुर के पास जहां यह ऐतिहासिक युद्ध हुआ था, उस स्थान का नाम बरेला है, जो मंडला रोड पर स्थित है, वही रानी की समाधि बनी है, जहां जाकर लोग अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। जबलपुर मे स्थित रानी दुर्गावती यूनिवर्सिटी भी इन्ही रानी के नाम पर बनी हुई है। 

8 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, आज की हकीकत - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. रानी दुर्गावती की वीरता की अनुपम गाथा पढ़कर मन विस्मय से भर गया है..महिलाओं को अबला कहने वाले ऐसी गाथाओं से अनभिज्ञ हैं..आभार !

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  3. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 21 अगस्त 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  4. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन बहकती जुबान, भटकते नेता : आखिर मंशा क्या है में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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  5. रानी दुर्गावती की गाथा बाजुओं में जोश पैदा कर देती है ... नमन है ऐसी वीरांगना को ...

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  6. इतिहास के पन्नों से देशभक्ति की एक प्रेरक कथा...नमन रानी दुर्गावती को..

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  7. रानी दुर्गावती की गाथा पढ़कर मन विस्मय से भर गया...नमन ऐसी वीरांगना को

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