हर सुबह के इंतज़ार में
अंधियारे से लड़ना है
हर पल घटती सांसें हैं
पल को जीभर जीना है
हर रिश्ते हर नाते को
राख यही हो जाना है
झूठे जग का मोह त्याग
उस पार अकेले जाना है ....
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भीड़ चहूँ ओर है
हर तरफ शोर है
रिश्तों के मेले हैं
अपनो के रेले हैं
दुनिया के खेले हैं
फिर भी अकेले हैं...
सच है.कभी कभी हम भीड़ में अकेले से लगते हैं....भाव पूर्ण रचना
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14 - 05 - 2015 को चर्चा मंच की चर्चा - 1975 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
एक शाश्वत सत्य...बहुत सुन्दर और भावपूर्ण प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंदुनिया के खेले हैं
जवाब देंहटाएंफिर भी अकेले हैं... sachhi baat ji
यही इंसान की नियति है -शाश्वत सत्य
जवाब देंहटाएंहक़–ओ-इन्साफ़
क्या कहूँ संध्या जी...बहुत खूब हमेशा की तरह..
जवाब देंहटाएंsach yahi hai, jise samajhne mein hm sari umra laga dete hai.
जवाब देंहटाएंयह समझ में आ जाये तभी सही जीवन शुरू होता है
जवाब देंहटाएंअकेलापन मन की स्थिति है ... भीड़ तो होती है आस पास पर मन भी साथ हो तो भीड़ है नहीं तो अकेलापन ... गहरी भावपूर्ण रचना ...
जवाब देंहटाएंआप सभी को धन्यवाद...
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण रचना ,आपको बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंदुनिया के मेले में आये भी अकेले थे जाना भी अकेले है |भावपूर्ण रचना
जवाब देंहटाएंbahut sundar ..
जवाब देंहटाएंसच कहा..
जवाब देंहटाएंसच कहा..
जवाब देंहटाएंसही कहा
जवाब देंहटाएं...बहुत सुन्दर प्रस्तुति के साथ शाश्वत सत्य
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