गुरुवार, 10 मार्च 2011

"स्वरचना "
कविता को नहीं,
स्वयं को रचती हूँ,
एक नए रंग में,
एक नए कोण से,
एक नए भाव में,

और...
इसी कोशिश में,
मन के किसी हिस्से को,
छूकर लौट आती हूँ,
जहाँ से चली थी,
वहीँ पर...

तो कभी ले आती हूँ,
स्मृति को,
एक रचनात्मक रूप देकर,
और बिखेर देती हूँ,
इन कोरे पन्नो पर...

यूँ ही...
एक चक्र सा,
चलता रहता है,
स्वरचना का,
अनवरत, निरंतर,
सोचती हूँ...
कहीं ये रचना,
अधूरी न लगे खुद को,
इसलिए  गढती रहती हूँ,
स्वयं को स्वयं के भीतर...  
                          "संध्या शर्मा"     


  

20 टिप्‍पणियां:

  1. इसलिए गढ़ती रहती हूँ
    स्वयं को स्वयं के भीतर

    खुद को अभिव्यक्त करना बहुत मुश्किल होता है , जीवन में ऐसा बहुत कम होता है कि हम खुद को समझने का प्रयास करें और जब ऐसा प्रयास हम शुरू करते हैं तो खुद अपने अस्तित्व से वाकिफ हो जाते हैं ..लौकिकता और आलौकिकता का संगम हा आपकी यह कविता

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  2. बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना ....

    स्वयं की पुनर्रचना ..स्वयं को गढ़ना और महसूसना ...यही तो है रचनाधर्म |

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  3. बहुत सुन्दर ..यह प्रयास अनवरत चलता रहे

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  4. आह ! कितना सूक्ष्म अवलोकन किया है आपने मन का .स्वरचना
    का चक्र यूँ ही चलता रहे अनवरत. उत्तम सकारात्मक प्रस्तुति .

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  5. गहन चिंतन...बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना..

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  6. बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना| धन्यवाद|

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  7. इसलिये गढती रहती हूँ
    स्वयं को स्वयं के भीतर.

    सुन्दर भाव, आकर्षक प्रस्तुति...

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  8. सोचती हूँ...
    कहीं ये रचना,
    अधूरी न लगे खुद को,
    इसलिए गढती रहती हूँ,
    स्वयं को स्वयं के भीतर...

    बहुत बढ़िया संध्याजी ...... यह प्रयास बना रहे....

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  9. दुनिया में इंसान खुद को समझ ले तो आधी दुनिया समझ में आ जाती है।
    अच्‍छे भावों के साथ अच्‍छी रचना।
    शुभकामनाएं आपको।

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  10. रचना पूरी करने के लिये खुद को खुद मे ढूँढना ही पडता है। बहुत सुन्दर भाव। बधाई।

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  11. सोचती हूँ...
    कहीं ये रचना,
    अधूरी न लगे खुद को,
    इसलिए गढती रहती हूँ,
    स्वयं को स्वयं के भीतर...

    वाह! स्वयं को लिखना ही ती कविता है !
    संध्या जी, ऐसे अहसास गहराई में उतर कर स्वयं संवेदना स्पर्श करने के बाद ही आते हैं !
    आभार !

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  12. कहीं ये रचना,
    अधूरी न लगे खुद को,
    इसलिए गढती रहती हूँ,
    स्वयं को स्वयं के भीतर...

    सर्जनात्मकता की यह लगन और सतर्कता का यह पैनापन नएपन को अनवरत गढ़ते रहने का प्रथम और अनिवार्य पायदान है। यूं ही गढ़ते रहिए लोग पढ़ते रहेंगे प्रफुल्लित होकर।

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  13. Swayam ko gadhna Sabse durooh karya hai Sandhyaji.Aur aapne ise bakhubi poora kiya hai...Jab ko swayam ko pahchan nahi leta addmi wah khud ko gadh kaise sakta hai...
    Bahut hi acchi kavita hai aur ya yun kahun kavita ke roop me aatm abhivyakti kafi khubsoorat lahze me kiya hai nahin.

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  14. यूँ ही...
    एक चक्र सा,
    चलता रहता है,
    स्वरचना का,
    अनवरत, निरंतर,
    सोचती हूँ...
    कहीं ये रचना,
    अधूरी न लगे खुद को,
    इसलिए गढती रहती हूँ,
    स्वयं को स्वयं के भीतर...

    बहुत खूब.
    बहुत ही खूब.
    सलाम.

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  15. तो कभी ले आती हूँ,
    स्मृति को,
    एक रचनात्मक रूप देकर,
    और बिखेर देती हूँ,
    इन कोरे पन्नो पर...
    ..... appreciable creativity.

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  16. वाकई मन को छू लेने में कामयाब हो संध्या ! शुभकामनायें आपको !

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  17. आध्यात्मिक भावों से सजी रचना ...सार्थक बन पड़ी है

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  18. कविता को नहीं,
    स्वयं को रचती हूँ,
    ..behtreen rachnaaaa

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  19. bahut hi manbhaavan rachna ..dil me basti hui .. badhayi sweekar kare..

    --------------

    मेरी नयी कविता " तेरा नाम " पर आप का स्वागत है .
    आपसे निवेदन है की इस अवश्य पढ़िए और अपने कमेन्ट से इसे अनुग्रहित करे.
    """" इस कविता का लिंक है ::::
    http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/02/blog-post.html
    विजय

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  20. आपकी इस रचना के अलावा अन्‍य रचनाएं भी पढी, सचमुच सरल भाषा में मन के भावों को एक लय में बांधा है, हार्दिक बधाई

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