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हे उद्दात लहरों ...
कौन भड़काता है तुम्हे
कौन सिखाता है तुम्हे
क्यों ठेस पहुंचाती हो
क्यों ख़ुदको छलती हो
क्या यही सभ्यता है
क्या यही परंपरा है
कहाँ गए तुम्हारे मर्यादित
सामुद्रिक संस्कार???
यह कैसा अधिकार
क्यों न तुम्हें बांध दिया जाए
बंधनों की बेड़ी से
वह भी बिल्कुल अकेले
फिर खूब चीख़ना - चिल्लाना
सवाल करना ख़ुद से
और जवाब भी देना
देखना निरूत्तर हो जाओगी
क्योंकि मर्यादाओं को तोड़ना
बंधनों को तोड़ने से कहीं अधिक
मुश्किल और कठिन है...
वाकई , सशक्त और विचारणीय भाव
जवाब देंहटाएंक्योंकि मर्यादाओं को तोड़ना
जवाब देंहटाएंबंधनों को तोड़ने से कहीं अधिक
मुश्किल और कठिन है...
सचमुच...बहुत सुन्दर कविता है संध्या जी..
सच कहा है मर्यादा में बंधे असहाय हो जाते हैं सब ... अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति ...
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