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गुरुवार, 31 दिसंबर 2020

धरती की वेदना - जन्मा कोरोना

धरती माँ ने सही

असह्य वेदना

जन्मा कोरोना

कभी रफ़्तार होती थी

मायने ज़िंदगी की

थम गई दुनिया

एक ही पल में

धरा ने खोल दिया

अपने घर का झरोखा

आसमान साफ़ किया

आँगन बुहारा

कुछ परिंदे उड़ा दिए

कुछ सहेज लिये 

जल पवित्र किया 

नदियाँ जी उठीं  

हवा शुद्ध की

अल्प साधनों में

जीना सिखा दिया

लौटा दी प्राकृतिक छटा

ताकि सांस ले सके जीवन

पनपती रहें वनस्पतियां

बचे रहें पहाड़

आओ इस नए साल में

संकल्प लें हम सब

धरती माँ की आज्ञा

सहजता से स्वीकार

उसे सहयोग करेंगे

उसके आँगन को

सदा सहेजकर रखेंगे 

मानव जाति को बचाने....

 नव संकल्प के साथ आंग्ल नूतन वर्ष की आप सभी को हार्दिक शुभकामनायें ... 


सोमवार, 3 नवंबर 2014

काश !!!


वो बुदबुदाती रहती है अकेली 
जैसे खुद से कुछ कह रही हो 
या दे रही हो, उलाहना ईश्वर को ??
स्वयं ही तो चुना था उसने 
पति के जाने के बाद 
पुत्र को विदेश भेजकर 
अपने लिए यह अकेलापन 
अपनी ही कोशिशों में विफल
दिखाई देती है आजकल 
एक थकी हुई बेबस स्त्री
हाँ माँ कहना ज्यादा ठीक होगा 
क्या है आखिर उसके मन में 
नही कह पाती बेटे से भी जो 
शायद वापसी की चाहत 
अंतिम दिनों में जीना चाहती है 
जी भरके अपनी संतान के साथ 
पर डरती भी है मन ही मन  
काश की ऐसे सर्द दिन हो 
जम जाए फ़ासलों की नदी 
सफ़ेद पारदर्शी राहों से होकर 
पहुँच जाए उसकी हर पीड़ा 
उसके बेटे तक ……!
सांसों का स्पंदन रहते तक !!!

शुक्रवार, 31 मई 2013

यादें बचपन की... संध्या शर्मा


बीती यादें उमड़ -घुमड़ के
आ रही रही हैं मेरे मन में
कैसे-कैसे वो दिन हैं बीते
क्या-क्या छूटा बचपन में
 

रोज सबेरे सूरज आता
स्वर्ण रश्मि साथ लिए
नंगे पैरों दौड़ते थे हम
तितलियों को हाथ लिए

गेंद खेलना, रस्सी कूदना
गीली रेत के घर बनाना
भरी दुपहरी छत पर जाना
भैया के संग पतंग उड़ाना

खुशबू से महकती रसोई
चूल्हे पे पकता भात-दाल
खुश होना जब धोती माँ
रविवार को रीठे से बाल
 

आंगन में चारपाई बिछौना
बारिश की बूंदों से भीगना
लेटे-लेटे कहानियां सुनना
हुई सांझ तो तारे गिनना


पेड़ों से झांकता हुआ चाँद
पीपल, नीम की ठंडी छाँव
गाय-बैलों के घुंघरू के सुर
हरी-हरी घास, धूल सने पाँव

हँसते खेलते दौड़ते भागते
पैदल चले जाना स्कूल
स्कूल की छुट्टी होते ही
खेल में हो जाना मशगूल
 

पल में हँसते पल में रोते
पल में होती खूब लड़ाई
पल में जाते हम सब भूल
यादें बचपन की रही छाई 

जाने कितनी बातें,यादें
बसी हैं मन के कोने में
जब छा जाएं आँखों में
घंटों लग जाते हैं सोने में

सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

रमतूला... संध्या शर्मा



बड़ी मुश्किल से रात कटती
कब सुबह हो और उसे मिलूं
भुनसारे की चिरैया के जागते ही
जग जाती थी वो
पता नहीं क्यों बहुत भाता था
संग उसका
सिर्फ बरसात के दिनों में ही मिलती थी
उसका छोटी - छोटी साड़ी पहनना   
और उसका वह खास खिलौना
ईंट बनाने का सांचा
उसकी मोटर गाड़ी थी
एक रस्सी बाँधकर चलाती 
बहुत अच्छा लगता
लगता भी क्यों नहीं
बचपन होता ही ऐसा है
खेल कूद गुड्डे-गुड़िया
इतनी सी दुनिया होती है बचपन की
वो भी एक गुड़िया जैसी लगती
लेकिन वह गाती भी बहुत अच्छा थी
उसके साथ खेलते हुए हमने भी सीख लिया
उसका गाना
घर आकर जब हम गुनगुनाते
"ओ री बऊ कबे बजहे रमतूला"
माँ बहुत गुस्सा होती 
कई बार जानना चाह माँ से इसका अर्थ
माँ बहाने से टाल जाती
अचानक एक साल वह नहीं आई
मैं बहुत दुखी थी माँ से पूछा
माँ वह इस साल क्यों नहीं आई
माँ बोली....
अब वह कभी नहीं आएगी
बज गया रमतूला........

शनिवार, 9 फ़रवरी 2013

मोड़.... संध्या शर्मा

सुना है नहीं रहेगा
गली के कोने का
बिजली का खंभा
जिससे टिककर खड़ी
अपलक निहारती थी माँ
ससुराल जाते हुए मुझे
जब तक गली का
मोड़ ना आ जाए
मैं अब भी देखती हूँ उसे
हर बार आते वक़्त
तब तक.....
जब तक!!
मोड़ ना आ जाये
जबकि अब माँ
उससे टिकी नहीं होती
आज जाने मुझे
क्यों ऐसा लग रहा है
जैसे मुझसे मेरा कोई
अपना बिछड़ रहा है
कितने खुश हैं लोग
रास्ते का...!
चौड़ीकरण हो रहा है....

बुधवार, 8 अगस्त 2012

माँ... संध्या शर्मा

यह कविता नहीं,  कुछ बाते हैं, जो कहना चाहती हूँ, शायद मैं ठीक से कह भी नहीं सकी... 

मेरी माँ अर्धमूर्छित अवस्था में भी 
हमारी चिंता करती बस यही कहती
बेटा मिलजुलकर रहना
छोटी बहन की शादी करना
भाई के लिए पढ़ी - लिखी दुल्हन लाना
सुन्दरता पर मत जाना
मेरी अंतिम यात्रा की खबर इन-इन को देना
इन्हें सबसे पहले फोन कर देना...
माँ जो पहले हमेशा हमे चिढाती थी कहकर
"हे भगवान ले लो मेरे प्राण" सुनकर
हम नाराज होते वो मुस्कुराती थी
वही डॉक्टर के आगे गिड़गिड़ाती
तीन साल असहनीय पीड़ा झेलती
जीती रही हमारी खातिर
जब कभी दर्द से थक हार जाती
मैं कहती माँ जीना है तुम्हे हमारे लिए
सुनकर जी उठती पर जाने क्या सोचती
फिर आई सन २००० अगस्त माह की ९ तारीख
याद है मुझे वो दर्द भरी कांपती आवाज
"बेटा बहुत दर्द है, अब नहीं सहा जाता
और और आगे नहीं सुना गया .....
उसदिन ईश्वर से हमने की थी प्रार्थना           
"तू अब मत रोने दे मेरी माँ को
बहुत रो चुकी, बहुत सह चुकी
अब हमारी रोने की बारी है"
शायद माँ भी बस इसीलिए रुकी थी
सो गई, मुख पर गहरी मुस्कान लिए
चिरनिद्रा में हमेशा-हमेशा के लिए........

गुरुवार, 12 जुलाई 2012

दायरे...संध्या शर्मा

जन्म से पूर्व 
माँ के गर्भ से
आदत बन गया
दायरे के भीतर जीना
जीते रहे इसी दायरे में
साथ-साथ  जीते-जीते
हिस्सा बन गया जीवन का 
जन्म के बाद भी
मुक्त ना हो सके
कई बार सोचा
मुक्त हो जाऊं
खुलकर सांस लूँ
स्वयं की मालिक खुद बनूँ
क्यों न तोड़ दूँ इसे
इससे बाहर निकलूं
जीकर देखूं कुछ पल
लेकिन ऐसा हो ना सका
भला एक इन्सान की
इन पक्षियों के साथ 
कैसी बराबरी
स्वीकार है मुझे यह संग
जीवन के तमाम रंग
  यहाँ कभी कुछ मिलता है
कुछ नहीं भी मिलता है 
बस दुःख इस बात का है
धरती का प्रेम मिला 
पर खुला आसमान नहीं ...