मंगलवार, 18 नवंबर 2014

माँ.... !


पंछी गूंगे हो गए
चाँद-तारे खो गए  
जहाँ तक नज़र जाए  
ठूँठे से दरख़्त है  
मेरे बचपन का गाँव 
ज्यूँ काठ का हो गया 
जबसे आखिरी बार
उसकी गलियों से 
तुझे गुजरते देखा ....!

सोमवार, 3 नवंबर 2014

काश !!!


वो बुदबुदाती रहती है अकेली 
जैसे खुद से कुछ कह रही हो 
या दे रही हो, उलाहना ईश्वर को ??
स्वयं ही तो चुना था उसने 
पति के जाने के बाद 
पुत्र को विदेश भेजकर 
अपने लिए यह अकेलापन 
अपनी ही कोशिशों में विफल
दिखाई देती है आजकल 
एक थकी हुई बेबस स्त्री
हाँ माँ कहना ज्यादा ठीक होगा 
क्या है आखिर उसके मन में 
नही कह पाती बेटे से भी जो 
शायद वापसी की चाहत 
अंतिम दिनों में जीना चाहती है 
जी भरके अपनी संतान के साथ 
पर डरती भी है मन ही मन  
काश की ऐसे सर्द दिन हो 
जम जाए फ़ासलों की नदी 
सफ़ेद पारदर्शी राहों से होकर 
पहुँच जाए उसकी हर पीड़ा 
उसके बेटे तक ……!
सांसों का स्पंदन रहते तक !!!