जब बारिश आती है
शुरू हो जाती है
क़वायद .... !
एक तरफ धरती की
दूसरी ओर इंसान की
धरा ढूंढती है कॉन्क्रीट के बीच
जल को आत्मसात करने की जगहें
और इंसान तलाशता है
पानी से बचने का ठौर
__संध्या शर्मा__
जब बारिश आती है
शुरू हो जाती है
क़वायद .... !
एक तरफ धरती की
दूसरी ओर इंसान की
धरा ढूंढती है कॉन्क्रीट के बीच
जल को आत्मसात करने की जगहें
और इंसान तलाशता है
पानी से बचने का ठौर
__संध्या शर्मा__
एक दिन चित्रकार, ब्लॉगर, साहित्यकार उषा किरण जी ने फेसबुक पर लिखा "India Art Fair 2022, Delhi में देखी गई कलाकार `सोमा दास ‘ की क्रम से लगी ये पाँच पेंटिंग्स `Made For Each Other ’ मेरे दिल में बस गई है ….ध्यान से देखिए तो इस पेंटिंग में छिपी एक कविता भी नजर आती है मुझे" और उन्होंने हमारे आग्रह पर अपनी वह कविता साझा करने के साथ - साथ मुझे भी कविता लिखने को कहा - यह वही पेंटिंग है, और वही कविता जो हमने उनके आग्रह पर लिखी ...
अच्छी तरह याद है मुझे ....
जब मैंने पहली बार
तुम्हारे घर की देहरी पर
कच्चे चावल से भरा कलश
दाहिने पांव से छुआ था
कितने प्यार से सहेजा था
दाना - दाना तुमने
अमानत की तरह
वो बड़ी ही नरमी से
मेरी पायल में जड़े मोतियों को
सहलाना तुम्हारा
वो तन्मयता से मेरे पांवों को
महावर से सजाना तुम्हारा
मेरे आंचल को सलीके से संवारना
हर पूजन अनुष्ठान में
मुझे सम्मान देकर
अनुगामी बनना तुम्हारा
धरती संग आसमां की तरह
तो क्यों न मैं भी
तुम्हारे कदमों को
उसी नज़र से देखूँ
जिन नजरों से देखा था
मेरे पैरों को तुमने
जब निकाले थे
मेरे पांव में चुभे कांटे ...
तुम्हारे इस प्रेम ने
ऐसी परवाज़ दी है
ऐसा लगता है मुझे
जैसे ये तुम्हारे पैर नही
एक जोड़ा पंख हैं
मेरे लिए ....
...संध्या शर्मा ...
हे नूतन वर्ष !
अबकी आना तो
मास्क लगाकर
सेनिटाइज़ होकर
हाथों को सफ़ाई से धोकर
ओमीक्रॉन, कोरोना से
पूरी दूरी बनाकर
दोनों वैक्सीन के साथ
बूस्टर से भी लैस होकर आना
तुम पूरी तरह सुरक्षित हो जाना
तुम्हारा हृदय से स्वागत करेंगे
मन की बातें आँखों से करेंगे
क्योंकि अब तुम्हारे स्वागत में
सुंदर कवितायेँ नहीं बन पा रही है
शब्द गुम हो गए ख़ुशी खो गई है
जिन्हें जीना था वे बेमौत मरे हैं
जो बच गए वे भी कम नहीं मरे हैं
हे नववर्ष तुमसे इतना है कहना
इस महामारी से बचकर रहना
हमारे थोड़े से कहे को
भलीभाँति समझ लेना
कम में या ज़्यादा में
जैसे भी हो रखना
पर पिछले साल जैसे न होना .....
कजलियां प्रकृति प्रेम और खुशहाली से जुड़ा पर्व है। इसका प्रचलन सदियों से चला आ रहा है। राखी पर्व के दूसरे दिन कजलियां पर्व मनाया जाता है। इसे कई स्थानों पर भुजलिया या भुजरियां नाम से भी जाना जाता है। श्रावण मास की अष्टमी और नवमीं तिथि को बांस की छोटी-छोटी टोकरियों में खेतों से लाई मिट्टी की तह बिछाकर गेहूं के दाने बोए जाते हैं।
गेहूं की फसल बोने से पहले मनाए जाने वाले इस पर्व पर मिट्टी की उर्वरक शक्ति तथा बीजों की अंकुरण क्षमता परखी जाती है। अलग-अलग खेतों से लाई गई मिट्टी में घर में रखे गेहूं के बीज को बोया जाता है।
इससे जब कजलियां तैयार होती है तो किसानों की इस बात का अंदाजा लग जाता है कि खेत की मिट्टी और गेहूं का बीज कैसा है। यदि कजलिया मानक के अनरुप पाई गई तो किसान आश्वस्त हो जाते हैं कि बीज और खेत की मिट्टी गेहूं की फसल के लिए उपयुक्त है।
यह पर्व अच्छी बारिश, अच्छी फसल और जीवन में सुख-समृद्धि की कामना से किया जाता है। तकरीबन एक सप्ताह में गेहूं के पौधे उग आते हैं, जिन्हें भुजरिया कहा जाता है।
श्रावण मास की पूर्णिमा तक ये भुजरिया चार से छह इंच की हो जाती हैं। कजलियों (भुजरियां) के दिन महिलाएं पारंपरिक गीत गाते हुए और गाजे-बाजे के साथ तट या सरोवरों में कजलियां विसर्जन के लिए ले जाती हैं।
तालाबों और तटों पर कजलियां खोंट ली जाती हैं और बची टोकरियों का विसर्जन कर कजलियां पर्व मनाया जाता है।
हरी-पीली व कोमल गेहूं की बालियों को आदर और सम्मान के साथ भेंट करने एवं कानों में लगाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है।
तालाबों व तटों पर कजलियां विसर्जन का मेला लगता है।
चारों ओर खरीददारी के लिए दुकानें सजती हैं।
सभी एक दूसरे की सुख - समृद्घि की कामना कर पुराने राग - बैर को भूलने का संकल्प करते हैं।
मेल मिलाप के इस पर्व पर लोग एक दूसरे को कजलियों का आदान प्रदान करते हैं। जो बराबरी के हैं, वे गले लगते हैं और जो बड़े हैं वे छोटों को आशीर्वाद देते हैं। बच्चों के कान में स्नेह और आशीष स्वरुप कजलियां खोंस दी जाती है।
कजलियों को लेकर बच्चों में खासा उत्साह देखने मिलता है। बच्चों को कजलियां देने के बाद शगुन के रूप में बड़े उन्हें उपहार देते हैं। लोग सुख - दुख बांटने, मेल-मिलाप के लिए नाते-रिश्तेदार एक दूसरे के घर जाते हैं।