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बुधवार, 5 जून 2024

हरियाली खुशहाली है... संध्या शर्मा

बच्चों आओ मैं हूँ पेड़

मुझे लगाओ करो ना देर

जब तुम मुझे उगाओगे 

धरती सुखी बनाओगे

दुनिया मेरी निराली है

हरियाली खुशहाली है


रोको मुझपर होते प्रहार

मैं हूँ जीवन का आधार

छाँव फूल फल देता हूँ

तुमसे कुछ नही लेता हूँ

वायू जहरीली पीता हूँ

शुद्ध हवा तुम्हें देता हूँ


प्रकृति का सम्मान करो

वसुंधरा का तुम ध्यान धरो

मेरा मन भी बहुत रोता है

दुख मुझको भी होता है

अब तो मुझको ना काटो

टुकड़ों टुकड़ों में ना बांटो 


मुझसे ही बनते हैं उपवन

मैं हूँ, तो जीवित हैं ये वन

देता हूँ पंछी को ठिकाना

और चिड़ियों को दाना

रूठी प्रकृति को मनाना

कहते थे ये दादा नाना

बात उनकी तुम मानोगे

घर - घर पेड़ लगाओगे

शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

तान्हा पोळा एवं मारबत - बड़ग्या उत्सव

भारतीय जनमानस में लोकपर्वों का अत्यधिक महत्व है, उत्सवधर्मी समाज इन पर्वों को बड़ी धूमधाम से मनाता है। ग्रामीण भारत के अधिकांशत: त्यौहार कृषि पर आधारित होते हैं,  ऐसा ही एक त्यौहार महाराष्ट्र के विदर्भ में पोला मनाया जाता है।  जो कृषि कार्य में संलग्न पशुधन के प्रति श्रद्धा एवं आभार व्यक्त करने का पर्व है। अमावस्या को बड़ा पोला मना कर उसके दूसरे दिन पड़वा को बच्चों के आनंद व उन्हें अपनी माटी से जोड़ने हेतु भोसला शासन काल में तान्हा पोला की शुरुआत हुई।  

इस दिन छोटे बच्चे लकड़ी से बने सुंदर सुन्दर बैलों को सजाकर शाम को हनुमान मंदिर के पास सुंदर वेशभूषा में सज संवर के एकत्रित होते हैं।  आम की पत्तियों और फूलों से बने तोरण को तोड़कर पोळा फूटता है।  इसके बाद हर घर के द्वार पर पुत्र की माता या दादी के द्वारा बैल की पूजा तथा बालक का तिलक करके स्वागत किया जाता है व उपहार स्वरुप मिठाई, चॉकलेट बिस्किट या पैसे दिए जाने की परंपरा है जिसे " बोजारा" कहते हैं. इसके साथ ही भीगी हुई चने की दाल व ककड़ी का प्रसाद बांटा जाता है। 
अनेक स्थानों पर लकड़ी के बैलों की सजावट स्पर्धा, वेशभूषा स्पर्धा का आयोजन किया जाता है, विजेता को पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। इस दिन बच्चों का उत्साह तो देखते ही बनता है, बड़ों को भी आपसी मेल - मिलाप का अवसर मिल जाता है। 

इसी दिन अनिष्ट के निवारण व बुराई के विरोध में मारवत उत्सव भी  मनाया जा रहा है, एक सौ सैंतीस वर्ष पूर्व प्रारंभ हुए इस उत्सव को मनाने की परम्परा आज भी क़ायम है। सम्पूर्ण विदर्भवासियों के लिए यह विशेष आकर्षण का केंद्र होता है।  इसमें काली मारबत, पीली मारबत व आतंकवाद, देशद्रोह, भ्रष्टाचार व सामाजिक व राष्ट्रीय मुद्दों के तहत प्रतीकात्मक बड़ग्या के पुतले बनाए जाते हैं। जुलुस के साथ इन्हें शहर में घुमाया जाता है, व इन सभी बुराईयों को "घ्यून जा गे  ... मारबत (साथ ले जा मारबत) के नारों द्वारा मारबत से साथ अपने ले जाने की प्रार्थना की जाती है।  संदल, ढोल - नगाड़े और अबीर-गुलाल खेलते हुए अंत में नाईक तालाब में विसर्जन कर दिया जाता है। 

लोक पर्व हमारे मानस में इतने रचे बसे हैं कि आधुनिकता की आँधी इन्हें उड़ाकर नहीं ले जा सकी, भले ही रुप बदल गया हो पर लोक पर्व वर्तमान में भी कायम हैं। यही हमारी संस्कृति है जो गाँवों का शहरीकरण होने के बाद भी जीवित है और प्रकृति के प्रति आस्था व्यक्त करते हुए पशुओं एवं अन्य प्राणियों का सम्मान करना सिखाती है।

गुरुवार, 19 जून 2014

पहली फुहार...


आई बरखा
गूँजने लगा
बूंदों का संगीत
भीगने लगा
अलसाया मौसम
पहली फुहार के
स्वागत को आतुर
पंख पसारे
मन मयूर
धुल गई
पत्ती-पत्ती
खिल गई
डाली-डाली
कोरी धरती पर
लिखने वाली है
फिर से हरियाली .....