रविवार, 28 सितंबर 2014

सिन्दूरी साँझ का आगमन ...



सिन्दूरी साँझ का आगमन 
यामिनी की दस्तक लिए 
बीत गया आज का दिन भी
कुछ देर विश्राम उजाले का 
अन्धियारा भ्रमित हुआ
एकान्त की चादर ओढ़ कर 
पसर जाना है इसको फिर 
सन्नाटों के शोर में दबकर
सोच रहा है जीत गया 
खोज स्वयं की करते-करते 
कितना अरसा बीत गया
उषा की पहली किरण के साथ
क्षितिज के सतरंगी इन्द्रधनुष 
चलाते हैं झिलमिलाते बाण 
रोज-रोज मिटता अंधेरा 
दिन के हौसलों के आगे 
सच के सामने ख़ामोश
सरे आम हारता है वह 
अगली रात लौटने को 
मुस्कुराता चला जाता है… 

रविवार, 14 सितंबर 2014

हिन्दी के साथ सौतेला व्यवहार बंद हो...

हिन्दी की सालगिरह है, याने 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस मनाने का उद्यम जोर-शोर से हो रहा है। इस तरह वर्ष भर में सिर्फ़ एक बार ही हिंदी का अतिशयोक्ति पूर्ण महिमामंडन करना पराजय का बोध कराता है। ऐसा लगता है, जैसे दुनिया की (चीनी, स्पेनिश और अंग्रेजी के बाद ) चौथी सबसे बड़ी भाषा के श्राद्ध का आयोजन किया जा रहा हो । यह विडम्बना नहीं तो क्या है कि जहाँ हर दिन हिंदी का होना चाहिए वहां साल में एक दिन का हिंदी दिवस। आखिर क्यों??

हर साल हिंदी दिवस के दिन सरकारी दफ्तरों के बाहर हिंदी पखवाड़े के बैनर पोस्टर को देख ऐसा लगता है, जैसे किसी भूले हुए को याद दिलाने की कोशिश की जा रही हो । हिंदी दिवस याद रह गया है, अंग्रेजी को आगे बढ़ा कर हिन्दी के साथ सौतेला व्यवहार किया जा रहा है जिससे हिंदी विसरती जा रही है। संघ लोक सेवा आयोग के सीसैट पर्चे की परीक्षा के विरूद्ध आन्दोलन ने एक बार फिर अंग्रेजी के समक्ष हिंदी की हैसियत का एहसास कराया है।

चाहे प्रश्न-पत्र हो या सरकारी राज-काज या न्यायालय हर जगह की मूल प्रामाणिक भाषा अंग्रेजी है । इंग्लिश मीडियम के स्कूल अंग्रेजी के साम्राज्य का प्रचार-प्रसार करते प्रतीत होते हैं । इन अंग्रेजी स्कूलों में अपने बच्चे को शिक्षा दिलाकर माँ-बाप अपने आप को धन्य समझते हैं। आधुनिक जीवन की सुख-सुविधाओं के आधार रूप में उपलब्ध उपकरणों, जैसे : टेलीविजन, फ्रिज, एसी, वाशिंग मशीन या कार-स्कूटर, के साथ उपलब्ध दिशा-निर्देश पुस्तिकाओं पर सामान्यतः अंगरेजी में ही लिखे रहते हैं। दवा के रैपर पर नाम, निर्माण तिथि आदि की जानकारी भी अंग्रेजी में ही होती है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जहां-जहां नज़र जाती है वहां-वहां अंग्रेजी है। ऎसे में राज-भाषा का तमगा एक ढकोसला है

हमारी शिक्षा नीति भी अंग्रेजी के पक्ष में दिखाई देती है । संपन्न के लिए अंग्रेजी स्कूल और क्षेत्रीय व हिन्दी भाषा के स्कूल  गरीब वर्ग के लिए ही रह गए हैं। यहां ये भी कहना गलत ना होगा कि अंग्रेजी -विहीन स्कूली शिक्षा निरर्थक है । रोजी-रोटी कमाने के हर क्षेत्र पर अंग्रेजी का वर्चस्व है। आज हालात यह हैं कि हर व्यक्ति अपने बच्चों के लिए अंग्रेजी स्कूलों की ओर दौड़ रहा है । गली-कूचों में नये-नये ‘अंग्रेजी  मीडियम' स्कूल खुल रहे हैं और देशी भाषाओं वाले स्कूल विद्यार्थी विहीन हो रहे हैं ।

इस उपेक्षित सी, असंगठित सी, किंकर्त्तव्यविमूढ स्थिति में रहने वाली हिन्दी की निराशा को आशा में बदलने, और अबला को सबला बनाने का महत्त्वपूर्ण कार्य सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुआ है । म्प्यूटर पर हिन्दी में आलेख, सूचियाँ, डेटाबेस, पुस्तकें आदि के लिए टूल्स बन गए हैं। इंटरनेट से हिन्दी में ई-मेल, ब्लॉग, कॉन्फ्रेरसिंग कर सकते हैं। फॉन्ट, कन्वर्जन यूटिलिटी, ऑफिस सॉफ्टवेयर, ओसीआर, बोल-पहचान, वर्तनी जाँच, ट्रांसलेशन सपोर्ट मुक्त रूप में मिल रहे हैं, और वह भी निशुल्क । कहा जाता है "निज भाषा उन्नति को मूल" दुनिया भर में अनेक ऐसे देश हैं, जिन्होंने  अपनी राष्ट्र भाषा के दम पर ही विकास का रास्ता अपनाया है, और सफ़लता भी पाई है, तो फ़िर हम क्यों नही ऐसा कर सकते?

हिंदी के सच्चे प्रेमियों को हिंदी दिवस को भाषा संकल्प दिवस के रूप में मनाना चाहिए। देश में रोजगारोन्मुखी व्यावसायिक शिक्षा दी जाए और उसका आधार हिन्दी भाषा को बनाकर हिन्दी को विश्व में सर्वश्रेष्ठ स्थान पर देखने का स्वप्न पूर्ण हो सकता है। सभी भारतीय भाषाओं को एक जुट हो कर अंग्रेजी भाषा के विरूद्ध नहीं बल्कि अंग्रेजी के वर्चस्व के विरूद्ध संघर्ष करने का संकल्प लेना चाहिए । यह सब करने के लिए हमें अन्य भारतीय भाषाओं के साथ सखा-भाव अपनाना होगा। और यह तभी संभव होगा जब सभी भारतीय भाषाएं एक जुट हो जाएं। 

सोमवार, 8 सितंबर 2014

सियासी छल…


बड़ी ताक़त रखती हैं 
कुछ आवाजें  
झकझोरने आत्मा को 
पर क्या करें इन दहाडों का 
क्या सामर्थ्य है इनमें 
समस्या निराकरण का?
क्या फर्क पड़ता है  …!
तुम हो किसी भी दल से 
हमें तो सरोकार हल से 
अगर ना दे सको तो 
व्यर्थ है तुम्हारे दावे 
सारे घोषणापत्र, मकसद  
कर सको तो इतना करो 
छींट दो अमृत इन पर 
कि तुम्हारे हाथों तृप्त हो 
पा जाएं जन जीवन 
वर्ना जाओ संभालो   
अपना प्रण, हमारा क्या 
हम तो मुर्दा हैं, जीते जी 
सो जाएंगे ओढ़कर कफ़न
आम ग्रामीण, शहरी
रोटी के संघर्ष के लिए ही
जन्म लेता है और मर जाता है…!