शुक्रवार, 13 मार्च 2015

मन, शहरी नही हुआ ...

...
रोटी, मन, गाँव, शहर
सब्जी तरकारी में
फूलों की क्यारी में
रोटी के स्वाद में 
पापड़ अचार में 
मेवों पकवानों में
ऊँचे मकानों में 
बूढे से बरगद में
शहरों की सरहद में 
तीज त्योहार में 
मान मनुहार में
लोक व्यवहार में 
नवीन परिधान में 
बेगानो की भीड़ में 
संकरी गलियों में 
मौन परछाइयों में 
कांक्रीट की ज़मीन में 
धुँआ-धुँआ आसमां में 
अब भी गाँव ढूँढता है 
मन, शहरी नही हुआ ....

10 टिप्‍पणियां:

  1. बिलकुल, मन की ये तलाश जारी रहती है

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  2. धुँआ-धुँआ आसमां में
    अब भी गाँव ढूँढ़ता है
    मन, शहरी नहीं हुआ...

    बहुत खूब..... सुंदर रचना

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  3. बहुत खूब। बहुत ही सुंदर पंक्तियां।

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  4. मन हमेशा बच्चा ही रहता है ... जहां का होता है वहीं का रहता है ... फिर गाँव तो भूलने वाली चीज भी नहीं ...
    भावपूर्ण रचना ...

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  5. अद्भुत अहसास...सुन्दर प्रस्तुति बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको .

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  6. बहुत सुंदर..अनुपमा जी गाँव सा भोला जो है मन...

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  7. माफ़ कीजिये, गलती से गलत लिखा गया है, कहना था कविता अनुपम है

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  8. finallyy here is my new blog : The Mich
    special thnx to bloggers n here is first post of my blog:
    long way to go.. Happy Birthday Himani

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