हम तीन बहनों और एक भाई की मां। बहुत प्यारी, बहुत कुशाग्र बुद्धि वाली थी। मां ने राजनीति, समाज और गृहस्थी हर जगह अपनी कुशलता दिखाई। आज भी जबलपुर में 'इंद्रावती शर्मा' सिर्फ़ नाम ही काफी है उनकी कीर्ति को जानने के लिए।
हम बच्चों के पालन पोषण से लेकर शिक्षा, व्यवसाय, शादी विवाह हर फैसले उन्ही के होते थे, जो आज भी उनकी सफलता के प्रमाण हैं।
मां ने अपनी बेटियों ही नही बल्कि अनेक अनाथ बेटियों के विवाह अपने दम पर किए और आजन्म उनकी भी मां का फ़र्ज़ निभाती रही।
मां ने बेटियों पर शोषण के विरोध में समाज के सामने आकर आवाज़ उठाई और उन्हे उनका हक़ दिलाया।
उन्होंने बचपन में किस्से कहानियों के माध्यम से नैतिक शिक्षा दी हमे। चंदामामा, पराग, पंचतंत्र की कहानियां जैसी पुस्तकें हमारे लिए पढ़ना उनकी आज्ञा होती थी। रामायण की चौपाइयों से अंताक्षरी खेलती थी। काग चेष्टा, बकुल ध्यान, स्वान निद्रा जैसी सीख आज भी याद है। टंग ट्विस्टर सिखाती। ताश के खेल जिसमें ट्वेंटी नाइन उनका प्रिय खेल था! उनके जाने के बाद कभी नहीं खेल सके हम।
एक बार का किस्सा याद आता है। हम छोटे ही थे तब। पड़ौस की एक बहु के पैर में फ्रेक्चर के बाद प्लास्टर था, पैसे की कमी और परिवार की अनदेखी में वह उस प्लास्टर को समय सीमा के बाद भी मज़बूरी वश ढो रही थी! एक दिन वह मां के पास आई। मां ने उन्हें अस्पताल चलने को कहा तो उन्होंने कोई परेशानी बताई। मां ने अपने हाथों से प्लास्टर काट कर उन्हे उससे निजात दिलाई और कुछ दिनों बाद उन्हें ले जाकर डॉक्टर को दिखाया भी।
हर परेशानी का हल चुटकियों में करने वाली मां की दोनों किडनी खराब हो गई थी। बहुत तकलीफ़ उठाई उन्होंने। जब बीमारी का कोई इलाज़ ना हो तो इंसान इधर उधर किसी अन्य पैथी या चमत्कार के पीछे भागता है।
इसी के तहत एक बार किसी ने कहा कि कुछ ' उतारा' जैसा होता है, उसे करके चौराहे पर डाल दो। लेकिन अंधविश्वास को न मानने वाली मां ने सीधे सादे शब्दों में कहा था "मुझे ईश्वर ने जो कष्ट दिए हैं , मैं उसे उनकी इच्छा समझकर भुगतने को तैयार हूं, और मैं कभी भी नही चाहूंगी कि किसी दुश्मन को भी मेरे बदले ये कष्ट हो"
एक बार की बात है मां अर्धचेतना की अवस्था में डायलिसिस के लिए हॉस्पिटल में भर्ती थी। रात के लगभग दो बजे डॉक्टर ने उन्हें बॉल दबाकर उंगलियों की एक्सरसाइज करने कहा। हम सब परेशान थे कि इतनी रात को बॉल कहां से मिलेगी। घर भी काफ़ी दूर था। तभी मां ने धीरे से आंख खोली और भाई को पास बुलाकर धीरे से कहा बेटा! परेशान मत हो! रुई का गोला बना और पट्टियों को लपेटकर बॉल बना दे।" इतनी तकलीफ़ में भी अपने बच्चों की तकलीफ़ नही देख सकती थी वो मां।
अपने अंतिम समय में जब भी हम सब उनके लिए कोई उपाय करने में लगते वो कहती "गोइंठा में कितना भी घी डालोगे वो सूख जाएगा। मत डालो!" क्योंकि उन्हें समझ रहा था उनका इलाज़ करवाना आसान नहीं है।
capd करवाया गया था उनका। साधारण डायलिसिस उनका शरीर झेल नही पा रहा था। सारी सावधानियों के बाद भी उन्हें इन्फेक्शन हो गया। बहुत कोशिश की गई।
मैं नागपुर में ही थी। मां ने अंतिम बार मुझसे फोन पर बात की! मुझे उनकी आवाज़ में इतना दर्द महसूस हुआ कि मैने उस समय ईश्वर से प्रार्थना की "हे ईश्वर मां को अपने पास बुला ले। हमारे लिए इतनी तकलीफ़ में मत जीने दे उसे। मत रोने दे उसे दर्द सह सहकर! अब मां नही हम रो लेंगे!"
और इस तरह मैं अंतिम बार उनके वो शब्द"बेटा तू आ जा मेरे पास" भी नही सुन पाई!
ईश्वर भी जैसे बस हमारे कहने की राह देख रहा था। सिर्फ़ पचास की छोटी सी उम्र में मां ईश्वर के पास चली गई।
मां की हर सीख याद है मुझे। हर समस्या का हल उन्हे, उनकी बातों को याद करते हल करती हूं। हर पल उन्हे महसूस करती हूं। अब तो आईने में भी माथे पर पड़ती लकीरों में वो दिखाई देने लगी है ।
सब कहते हैं मैं मां सी हूं। बहुत कोशिश करती हूं, कि मां जैसी बनूं। लेकिन नही बन सकती मैं उसके जैसी मैने कहा न "मेरी मां सबसे प्यारी"
संध्या शर्मा