भारत में ऋतुओं का अपना आनंद है। वसंत तो ऋतुराज है और यह पूरी ही अवधि पर्वों की शृंखलाएं लिए हमारे बीच आती है और सहस्राब्दियों पुराने पर्वों से लेकर नवीन मान्यताओं वाले पर्व तक इस अवधि में मानेे और मनाए जाते हैं। यह राग और रंग की अवधि है और पीताभ इस ऋतु की विशेष रंगत है।
कोयल की मीठी कूक और सरसों के पीले-पीले फूल झूमझूमकर ऋतुराज के आगमन की घोषणा करते हैं। खेतों में फूली हुई सरसों, पवन के झोंकों से हिलती, ऐसी दिखाई देती है, मानो किसी इतराती नवयौवना का सुनहरा आंंचल लहरा रहा हो। लोक में चैता के नाम से गाये जाने वाले गीतों में इस पर्व के भाव गूंथे हुए मिलते हैं। यह मौसम अलस, उदासी भरा माना जाता है और फागुन का समस्त नशा, सारी मादकता घनीभूत होकर इन गीतों में छिटकी जाती है -
भूलि मति जइयो मुरारी, लगन जगाई के, हो रैसिया,
लगन लगाई केा चुनरी अकासे उडे मोरी,
धरती न सैंया धरूं पांव, तोरे संग निकसूं जब मैं देखे सारा गांव।
भूलि मति जइयो मुरारी लगन लगाइ के,
फुलवा तू काहे तोरि डारी,
तडपे मछरिया बिपानी, रहूंगी अकेली कैसे ननदी के बीर,
मुुदित प्रकृति के गान -
इस अवधि में प्रकृति का रोम-रोम खिल उठता है। मनुष्य तो क्या, पशु पक्षी भी आनंद से परिपूर्ण हो उठते हैं। सूर्य की मद्धम रश्मियों के साथ शीतल वायु मानव चेतना को उल्लसित कर देती है। वसंतोन्माद में कोई वासंती गीत गा उठता है तो नगाड़ोंं की थाप के साथ अनहद वाद्य बजने लगते हैं। बारहमासा गीतों में इस पर्वावधि की रोचकता दिखाई देती है -
पत मोर राखा सजनवा हो रामा, पत मोर राखा।
फागुन मास फगुन जन भूले, सखी सब चली गवनवा हो रामा,
चैत मास वन टेसू फूले, बैसाखे ताप तपनवा हो रामा...।
इस अवधि में शीशम के पेड़ हरे रंग की रेशम सी कोमल पत्तियों से ढँक जाते हैं। स्त्री पुरूष केसरिया वेशभूषा में प्रकृति के रंगों में घुल मिल जाते हैं, ऐसा प्रतीत होता है मानो, वे भी प्रकृति के अंग हों। मधुुरता, कोमलता तथा मनुष्य के मन की व्यथा की सहज अभिव्यक्ति में चैता गीत अपना सानी नहीं रखते-
रसे रसे डोले पवनवा हो रामा, चैत महिनवा।
चैत अंजोरिया में आप नहाइले, तरई क चुनरी पहिरि मुसकाइले,
रहि रहि हुलसे परवना हो रामा, चैत महिनवा।
कुहू कुहू कोइलिया अंधेरे अंगिया डगरिया के टक टक हेरे,
भइल अधीर नयनवा हो रामा, चैत महिनवा।
फुनगी से झांके रे नन्हीं नन्हीं पतियां,
लहरि लहरि समझावेलि बतिया,
जाने के कौन करनवा हो रामा, चैत महिनवा।
होत बिहाने बहारे घना अंगना, धीरे से खनक उठइ कर कंगना,
लहरे ला रस का सपनवा हो रामा, चैत महिनवा।
अतीत के साक्ष्य -
ऐतिहासिक संदर्भ बताते हैं कि प्राचीन काल में भारत में कामदेव के सम्मान में सुवासंतक नामक पर्व मनाया जाता था। यह उन दिनों का सबसे अधिक आमोद और उल्लासपूर्ण पर्व था। उसे वसंतोत्सव या मदनोत्सव के नाम से भी जाना जाता है। इस उत्सव में नृत्य व गीत गाए जाते थे, जिसमें स्त्री और पुरूष समान रूप से भाग लेते थे। प्रकृति अपनेे आल्हाद को छिटकाती लगती थी और इस दौर में मन गा उठता था-
अमवा की डरिया पे बोले रे कोयलिया रामा, बोले रे कोयलिया,
जियरवा उलझे ना। सुनि कोयल की बोलिया, जियरवा उलझे ना।
आम बौराइल रामा, गमके महुआ रामा, गमेेके महुअवा, जियरवा उलझे ना।
देखि अमवन की डरिया, जियरवा उलझे ना, महुवा बिनन गइलीं सखियन के संगवा रामा।
सखियन के संगवा जियरवा उलझे ना।
देखि बाबा फुलवरिया, जियरवा उलझे ना।
अमवा की डरिया पे बोले रे कोयलिया, बोले रे कोयलिया, जियरवा उलझे ना...।
सचमुच कचनार (बौहीमिया) की पत्तियों–रहित शाखाएँ गुलाबी, सफेद और बैंगनी–नीले फूलों से ढँक जाती हैं। कचनार के कोमल फूल चित्त को प्रफुल्लित करते हैं। कचनार के बाद सेमल के फूलने की बारी आती है। वसंत में इनकी पर्णरहित टहनियों में कटोरी जैसे आकार के नारंगी और लाल फूल खिल जाते हैं। फूलों से आच्छादित सेमल के वृक्षों को देख कर ऐसा आभास होता है मानो ये केवल पुष्पों का सजा हुआ गुलदस्ता हो। सूनी पड़ी अमराइयों में भी सहसा नया जीवन आ जाता है, और आम्र वृक्षों पीली मंजरियों के साथ ख़ुशी से बौराने से लग जाते हैं। बौर की मधुर सुगंध से कोयलें अमराइयों में खिंच आती हैं और उनकी कुहू–कुहू की मधुर पुकार अमराइयों में गूँज उठती है।
कुदरत का करिश्मा -
टेढ़े मेढ़े ढाक के पेड़, जिन्हें अनदेखा किया जाता है, वसंत के आते ही इनकी त्रिपर्णी पत्तियाँ गिर जाती हैं और टहनियाँ गहरे भूरे रंग की कलियों से भर जाती हैं। कुछ दिनों के बाद सारी कलियाँ एक साथ अचानक खिल जाती हैं,और इन पेड़ों से से घिरे वन आग की लपटों जैसे नारंगी–लाल रंग के फूलों से लदे हुए प्रज्वलित अंगारों से दिखाई देते हैं। मन की ख्वाहिशें हिलोर लेती हैं और गला गा उठता है-
पिया जब जइहैं विदेसवा हो रामा, बिंदुली लै अइहैं।
बिंदुली के संग संग टिकवा ले अइहैं टिकवा त सोहे मोरे मथवा हो रामा, बिंदुली लै अइहैं।
इस अवधि में कुसुमित वृक्षों की शाखाओं में हिंडोले डाले जाते हैं। पुष्पित वृक्षों पर मधुमक्खियों के झुंड के झुंड गुंजार करते और पुष्प गंध का आनंद लूटते हैं। वसंत ऋतु की पूरी छटा निखर आती है। प्रेम और उल्लास इस मास में अपनी चरम सीमा को पहुँच जाते हैं। चमेली की कलियाँ खिल जाती हैं और अपने सौरभ से वायु को सुवासित करती हैं। मानसरोवर झील की तरह आकाश भी निर्मल और नीला हो जाता है, मानो उसमें सूर्य और चंद्र रूपी दो बड़े फूल खिल रहे हों। कवि मन भी भला पीछे क्यों रहे? वह भी पहुँच जाता है अपनी धरा की पुकार लेकर वसंत के पास और करने लगता है वसंत से शीघ्रातिशीघ्र धरती पर आगमन के लिए मनुहार :
लेकर सरसों सी सजीली धानी चूनर,
समेट कर खुशबुएं सोंधी माटी की,
पहन किरणों के इंद्रधनुषी लिबास,
आ जाओ वसंत धरा के पास,
सजा सुकोमल अल्हड़ नवपल्लवी भर देना सुवास,
बिखेरो रंग हजार, न रहने दो धरा को देर तक उदास,
आ जाओ वसंत धरा के पास....
नवपल्ल्व फूटे इतराई बालियां,
सेमल, टेसू फूले, अकुलाया मन जगा महुआ सी बौराई आस,
आ जाओ वसंत धरा के पास,
बोली कोयलिया, बौराए बौर आम के भौरों की गूँज संग,
कलियों का उछाह बही बसंती बयार,
लिए मद मधुमास आ जाओ बसंत धरा के पास...।
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंबसंत औत फागुन के मौसम और सुन्दर प्राकृति का वर्णन ... खिलते हुए फूल और रस की झंकार सी बज रही है जैसे ... सुन्दर पोस्ट ....
जवाब देंहटाएंबासंती मौसम में प्रकृति हो या मानव दोनों के भीतर उमंग और उल्लास उमड़ने लगता है..भावपूर्ण सुंदर वर्णन !
जवाब देंहटाएंदिनांक 07/03/2017 को...
जवाब देंहटाएंआप की रचना का लिंक होगा...
पांच लिंकों का आनंदhttps://www.halchalwith5links.blogspot.com पर...
आप भी इस चर्चा में सादर आमंत्रित हैं...
आप की प्रतीक्षा रहेगी...
बढ़िया ।
जवाब देंहटाएंकलियों का उछाह बही बसंती बयार,
जवाब देंहटाएंलिए मद मधुमास आ जाओ बसंत धरा के पास...सुन्दर प्राकृति का वर्णन
प्रभावशाली प्रस्तुति
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