सिन्दूरी साँझ का आगमन
यामिनी की दस्तक लिए
बीत गया आज का दिन भी
कुछ देर विश्राम उजाले का
अन्धियारा भ्रमित हुआ
एकान्त की चादर ओढ़ कर
पसर जाना है इसको फिर
सन्नाटों के शोर में दबकर
सोच रहा है जीत गया
खोज स्वयं की करते-करते
कितना अरसा बीत गया
उषा की पहली किरण के साथ
क्षितिज के सतरंगी इन्द्रधनुष
चलाते हैं झिलमिलाते बाण
रोज-रोज मिटता अंधेरा
दिन के हौसलों के आगे
सच के सामने ख़ामोश
सरे आम हारता है वह
अगली रात लौटने को
मुस्कुराता चला जाता है…
" रोज-रोज मिटता अंधेरा
जवाब देंहटाएंदिन के हौसलों के आगे
सच के सामने ख़ामोश
सरे आम हारता है वह
अगली रात लौटने को
मुस्कुराता चला जाता है… "
सुंदर रचना ……नकारात्मकता पर सकारात्मकता की जीत को दर्शाती हुई…
वाह... सुन्दर रचना है
जवाब देंहटाएंवाह ..... बेहतरीन
जवाब देंहटाएंसांझ, रात और भोर की जंग है जो रोज़ होती है ... सदियों से चल रही है ...
जवाब देंहटाएंपर कौन जीतता है ... शायद आशा ...
बहुत ही रहिस्य से भरी पँक्तिया
जवाब देंहटाएंआपका ब्लॉगसफर आपका ब्लॉग ऍग्रीगेटरपर लगाया गया हैँ । यहाँ पधारै
क्या बात.... बहुत सुन्दर लिखती हैं आप ..
जवाब देंहटाएंअँधेरा घना कितना हो , सूरज निकलता है !
जवाब देंहटाएंसार्थक रचना !
बहुत खूबसूरत........भावुक करते जज़्बात |
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