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कांक्रीट के जंगल में
अकेला खड़ा वटवृक्ष
भयभीत है...?
व्याकुल है आज
चौंक उठता है
हर आहट से
जबकि जोड़ रखे हैं
कितने रिश्ते - नाते
सांझ के धुंधलके में
दूर आसमान में
टिमटिमाते तारे
शांत हवा के झोंके में
गूंजता अनहद नाद
पाकर धरती का
कोमल स्पर्श
ना जाने क्यूँ
छलक उठे हैं
उसके मौन नयन...
कांक्रीट के जंगल में
जवाब देंहटाएंअकेला खड़ा वटवृक्ष
भयभीत है...?
व्याकुल है आज
चौंक उठता है
हर आहट से
प्रकृति का अद्भुत मानवीकरण किया है आपने गजब
आह ! व्याकुल हुआ मन..
जवाब देंहटाएंमौन नयन और छलके आंसू
जवाब देंहटाएंनीर बहे , न छिपाये आंसूं !
बहुत ही अर्थपूर्ण. सुंदर प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंवृक्ष की पीड़ा को गहनता से महसूस किया
जवाब देंहटाएंwyakulta ka sundar chitran ...
जवाब देंहटाएंबढ़िया भावयुक्त कविता।
जवाब देंहटाएंमार्मिक रचना..जाने कब अकेला वटवृक्ष भी नहीं बचे..
जवाब देंहटाएंबेहद खुबसूरत ।
जवाब देंहटाएंवाकई... न जाने क्यों ?
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(8-6-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ!
हमारी पोस्ट का लिंक कहीं भी लगाना वर्जित है, इसलिए हटा दें
हटाएंबहुत खूब..
जवाब देंहटाएंकांक्रीट के जंगल में
जवाब देंहटाएंअकेला खड़ा वटवृक्ष
भयभीत है...?
sachmuch...
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंपर्यावरणवादी कविता। आज कल लोग पर्यावरण को लेकर बेफिक्र है और उसमें जरूरत से ज्यादा हस्तक्षेप भी कर रहे हैं। हो सकता है आपकी कविता सबकी आंखें खोल दें।
जवाब देंहटाएंअकेला वट ? नई जड़े कहाँ रोपेगा,सिमटते-सिमटते कितना जी पायेगा .कंक्रीट की त्रासदी कब तक झेल पाएगा !
जवाब देंहटाएंबहुत खूब..,उम्दा प्रस्तुति
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जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा प्रस्तुति !
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डरता है वो इन्सान के बनाए इन कंक्रीट के जंगलों से ...
जवाब देंहटाएंभावमय प्रस्तुति ...
काश वटवृक्ष की तरह इंसान भी अच्छे बुरे के बारे में सोच सकता
जवाब देंहटाएंजब वृक्ष बिना भेद-भाव के अपना हर कुछ लुटाने को तैयार है तो इंसान क्यों सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए उसका नाश करने पर तुला हुआ है
बहुत उत्कृष्ट अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंदर्द को परिभाषित करने में सफल रचना |
जवाब देंहटाएंबहुत ही शानदार रचना...
जवाब देंहटाएंअर्थपूर्ण पंक्तियाँ.....
जवाब देंहटाएंवृक्ष की पीड़ा को महसूस किया शानदार रचना...
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