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शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

बरसे छंद घनघोर...संध्या शर्मा

मुझे क्या...?
 कब मेघ छाये
कब बरखा बरसे
चाहे यक्ष-प्रिया
मेघदूत को तरसे
मैं तो बरखा तब जानूं
जब भावमेघ कालिदास के
 उमड़-घुमड़ छाएं
शब्दों की अमृत बूंदें
झूम-झूम बरसे
भर जाये ताल-तलैया
मनभावन रागों की
गीत-ग़ज़ल की
निर्मल सरिता बहे
हरषे जियरा
नाचे मन मोर
लिख दो हरियाली
चहुँ ओर
गाऊं होकर
प्रेम विभोर
छंद कालिदास के
बरसे घनघोर...

बुधवार, 7 नवंबर 2012

मेरे कालिदास...संध्या शर्मा

हर बार..........
जब भी कुछ लिखने बैठती हूँ
बहुत कोशिश करती हूँ
तुमको ना लिखूं
फिर भी आ ही जाते हो
तुम कहीं ना कहीं से
तुम्हारे आते ही
छाने लगते है
भावों के मेघ
बरसने लगती हैं,
सुन्दर शीतल
शब्दों की बूँदें
धीरे से इनमे समाकर
दे जाते हो मेरे सूखे शब्दों को
हरियाला सावन 
मेरे जीवन के  मेघदूत
मेरे कालिदास...