शनिवार, 9 मार्च 2013

अंतरात्मा... संध्या शर्मा

(1)
 
तू...
चली गई
अच्छा ही हुआ 
रहती तो 
दिल धडकता 
अन्याय के 
विरोध में 
कभी तो 
भड़कता
 
(2)
 
अब
सबकी 
सुनती हूँ 
दबा सकती हूँ 
आवाज़ मन की 
तू होती तो 
हारती 
रोज तुझसे 
तेरा क़र्ज़ 
मैं चुकाती 
 
(3)
 
देख 
कैसी निर्लज्ज हूँ 
तू नहीं है 
फिर भी
बचा रखी हैं 
कुछ साँसे 
बिन तेरे भी 
जीने के लिए 
इस शरीर को 
देती हूँ रोज
थोड़ी-थोड़ी

24 टिप्‍पणियां:

  1. अंतरात्मा बिन जीना ..... तीनों ही रचनाएँ गहरी अभिव्यक्ति लिए

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  2. बहुत ही भावपूर्ण और उम्दा प्रस्तुतिकरण,आभार.

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  3. संध्‍या जी बहुत ही यथार्थपरक, सामूहिक संवेदना उकेरी है आपने। संतुष्टि तो तब हो जब चाहा गया व्‍यवहार बन सके।

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  4. अंतरात्मा की ध्वनि सुन पाने के लिए सम्वेदनशील होना ही पड़ेगा ,अच्छी रचना .....

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  5. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (10-03-2013) के चर्चा मंच 1179 पर भी होगी. सूचनार्थ

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  6. बहुत भावपूर्ण और मर्मस्पर्शी रचना...

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  7. एक आवाज़
    तेरी या मेरी
    यूँ ही गूंजती रहें
    कुछ तेरे दिल,कुछ मेरे दिल
    बस वो यूँ ही खुद को
    जिन्दा रखे ||...अंजु(अनु)

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  8. तीनों ही रचनाएँ भावपूर्ण और मर्मस्पर्शी

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  9. लाजवाब प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
    महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ...

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  10. तीनों अतरात्मा की आवाज मन को बेध गई
    महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ...

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  11. अंतरात्मा की आवाज और सोच से उपजे विचार.
    सुंदर प्रस्तुति.

    महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ.

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  12. बहुत सुन्दर रचना... महाशिवरात्रि की शुभकामनायें

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  13. मार्मिक ... गहरा दुःख लिए मन की आवाज़ ...
    परम को छूती हैं तीनों ..

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  14. सुन्दर प्रस्तुति... बधाई

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  15. तीनों ही रचनाएँ बहुत ही गहन भाव लिए है...
    बेहतरीन रचनाएँ ..

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  16. कई बार यही तो करने का जी होता है.. अंतरात्मा के साथ..

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