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शनिवार, 4 जून 2016

पातालेश्‍वर की लेणी या पातालेश्वर मंदिर, पुणे

महाराष्‍ट्र को गुफाओं के क्षेत्र के रूप में भी जाना जाता है जहां हीनयान के काल से ही अनेक गुफाओं का निर्माण हुआ और स्‍थापत्‍य शास्‍त्र के ऐसे विधान और प्रतिमान खड़े किए जिनका आज तक कोई मुकाबला नहीं। यहां लगभग 200 ईसापूर्व में शिल्पियों ने पहाड़ों को ही प्रासादों के रूप में ढालने का प्रयास किया। हालांकि प्रथमतय यहां बौद्धों के लिए चैत्‍य और विहार बने और इस कार्य में स्‍थानीय शासकों ही नहीं, यवनों ने भी पर्याप्‍त सहयाेग किया।


बाद में यहां शैव प्रभाव आया तो गुफाओं के रूप में शिवायतनों का विकास हुआ। अलोरा-कैलास ही इसका उदाहरण नहीं है, पातालेश्‍वर की लेणी या पातालेश्वर मंदिर, जो कि राष्ट्रकूट वंश काल में गुफाएं काट कर बनाया गया था अपनी विशिष्‍ट स्‍थापत्‍य शैली के लिए ख्‍यातिलब्‍ध है। इनका शासनकाल लगभग छठी से तेरहवीं शताब्दी के मध्य था। 

महाराष्‍ट्र के प्रसिद्ध पुणे शहर की घनी बस्ती के बीच जंगली महाराज रोड पर यह गुफा प्रासाद है। हरे-भरे बगीचे के मुख्य द्वार पर जंगली महाराज का मंदिर है। वहाँ से अंदर जाने पर नीचे की और जाती सीढ़ियों से पातालेश्‍वर मंदिर तक पहुंचा जा सकता है। संभवत: इसीलिये इसका नाम पातालेश्वर पड़ा है। कहा तो यह जाता है कि इसका निर्माण पांडवों ने किया, मगर इतिहासकारों का मत है क‍ि 8वीं शताब्‍दी के आसपास इस क्षेत्र में शिवालयों का निर्माण भी पहाड़ों को काटकर विशिष्‍ट रूप में किया जाने लगा। तभी यह कहावत सी चल पड़ी कि शिव पर्वतों में भी आत्‍मवत् निवास करते हैं और शिखर पर शक्ति रहती है। यहां शैव सन्‍यासियों और शिवोपासकों ने विहार के योग्‍य गुफाओं के परंपरित स्‍थापत्‍य को अपने लिए स्‍वीकार किया।

पातालेश्‍वर शिवायतन का निर्माण एक विशालकाय पहाड़ को काटकर किया गया है। यह कार्य इतना महत्‍वपूर्ण हुआ है कि देखकर दांतों तले अंगुली दबा देनी पड़ती है। यहां वर्तमान में बौद्ध प्रभाव दिखाई नहीं देता किंतु इसमें दोराय नहीं कि यह स्‍थापत्‍य शैली और विधान बौद्धकाल से ही प्रेरित एवं प्रवर्तित रही है।

शैवशासन के बढ़ते प्रभाव के कारण सहयाद्रि आदि पर्वत मालाओं में शासकों, सामंतों और धनाढ़यों आदि ने अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया और इसमें शिव के अनेक स्‍वरूपों की स्‍थापना की गई। पहाड़ों के पत्‍थरों को ही प्रासादों की भित्तियों के रूप में स्‍वीकार किया गया और उन पर अनेक प्रकार के मूर्ति शिल्‍पों के साथ ही प्रतीकात्‍मक रूपों को उकेरा गया है। इनमें यहां की तत्‍कालीन समाज-संस्‍कृति की छवि को देखा जा सकता है।

पातालेश्‍वर लेणी की पहचान नंदी के विशाल मंडप के लिए है। यहां नंदिकेश्‍वर की अन्‍य प्रतिमाएं भी हैं। यहीं पर जलापूर्ति के लिए विशालकाय कूप है जिसे स्‍थानीय तौर पर विहिर कहा जाता है, वैसे यह शब्‍द इधर बावडि़यों के लिए प्रचलित रहा है। वर्तमान में इस कूप को बंद कर दिया गया है। 


यहां के स्‍थापत्‍य की एक विशेषता शिव के जलाभिषेक प्रणाली है। यह खास जल की प्रणाली थी। अभिषेक के बाद यह जल नालियों के माध्‍यम से कूप तक पहुंचाया जाता था। जल प्रबंधन की यह प्रणाली यहां आज भी देखी जा सकती है। एक प्रकार से यह कूपों में जल के पुनर्चक्रण की प्राचीन विधि है। जल फालतू न बहे और पुन: भूमि में पहुंचकर शुद्ध हो और जनोपयोगी सिद्ध हो। इस मंदिर के बायीं ओर एक और गुफा है जिसमें एक छोर पर पानी के भंडारण की प्राचीन व्‍यवस्‍था भी दिखाई देती है। यह आजकल के बाथटब जैसी है किंतु इसका प्रयोजन देव-स्‍नान से जुड़ा रहा होगा। 

इसी कूप के छोर पर एक बड़ी व एक उससे छोटी दो शिला - खंड भी विद्यमान हैं, जिनमे पदचिन्ह अंकित हैं, किवदंती है कि, उस समय के राजा व युवराज इन शिलाओं पर खड़े होकर सूर्यदेव को प्रातःकाल अर्घ्य दिया करते थे, उस अर्घ्य का जल भी वापस इसी कूप में संचित होता था, यह इस बात का प्रमाण है कि हमारे पूर्वज जल का महत्व समझते थे एवं प्रारम्भ से ही सुदृढ जल प्रबन्धन कर रहे थे।    
यहां आकर बहुत शांति का अनुभव होता है। प्रकृति अपने पूरे साैंदर्य के साथ यहां सम‍शीतोष्‍ण और षडऋतुमय बनी लगती है। शिव के धाम यूं भी पवित्रता के साथ-साथ प्राकृतिक सौंदर्य के सुखधाम होते हैं। 

6 टिप्‍पणियां:

  1. जल संरक्षण एवं प्राचीन जल शुद्धिकरण प्रणाली के साथ गूहा शिल्प की जानकारी आलेख के माध्यम से प्राप्त हुई। आभार।

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  2. सुंदर चित्रों से सजा जल संरक्षण के महत्व का बोध कराता आलेख..

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  3. सुंदर चित्र और लाजवाब जानकारी ... साथ में अच्छा सन्देश ...

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