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शुक्रवार, 31 मई 2013

यादें बचपन की... संध्या शर्मा


बीती यादें उमड़ -घुमड़ के
आ रही रही हैं मेरे मन में
कैसे-कैसे वो दिन हैं बीते
क्या-क्या छूटा बचपन में
 

रोज सबेरे सूरज आता
स्वर्ण रश्मि साथ लिए
नंगे पैरों दौड़ते थे हम
तितलियों को हाथ लिए

गेंद खेलना, रस्सी कूदना
गीली रेत के घर बनाना
भरी दुपहरी छत पर जाना
भैया के संग पतंग उड़ाना

खुशबू से महकती रसोई
चूल्हे पे पकता भात-दाल
खुश होना जब धोती माँ
रविवार को रीठे से बाल
 

आंगन में चारपाई बिछौना
बारिश की बूंदों से भीगना
लेटे-लेटे कहानियां सुनना
हुई सांझ तो तारे गिनना


पेड़ों से झांकता हुआ चाँद
पीपल, नीम की ठंडी छाँव
गाय-बैलों के घुंघरू के सुर
हरी-हरी घास, धूल सने पाँव

हँसते खेलते दौड़ते भागते
पैदल चले जाना स्कूल
स्कूल की छुट्टी होते ही
खेल में हो जाना मशगूल
 

पल में हँसते पल में रोते
पल में होती खूब लड़ाई
पल में जाते हम सब भूल
यादें बचपन की रही छाई 

जाने कितनी बातें,यादें
बसी हैं मन के कोने में
जब छा जाएं आँखों में
घंटों लग जाते हैं सोने में

शुक्रवार, 24 मई 2013

बनो अग्रदूत..... संध्या शर्मा

चाहते हो ???
बगुलों के बीच

नीर-क्षीर विवेकी हंस होना
ग्रहों से परिक्रमित होते
प्रकाशित करते
सौरमन्डल के सूर्य की तरह
प्रतिपल चमकना
तो भेड़ प्रवृत्ति से प्रथक
जनसमूह का बनकर घटक
अनुगंता, अनुकर्ता  नहीं
अग्रदूत बनो
अस्तित्व को नई पहचान दो
आसान न सही
असंभव भी नहीं  
आकाश के अगणित तारों के मध्य
ध्रुवतारा होना....

रविवार, 19 मई 2013

लघु कथाएं... संध्या शर्मा

लघु कथा-1

दो निवाले सुख के
उन्हें रिटायर हुए एक बरस भी न हुआ था कि पत्नी साथ छोड़ गई, जमा पूंजी का कुछ हिस्सा उसके इलाज़ में और बाकी बेटों ने मजबूरियां, तकलीफें बताकर हथिया ली. आसरे के लिए रह गए तो सिर्फ पेंशन के गिने चुने पैसे. आजकल बहुओं को उन्हें दो वक़्त की रोटी खिलाना भी भारी पड़ने लगा है, हालत के मारे क्या करते आखिर उन्होंने खोज लिया "दोन घास सुखाचे" का मार्ग अर्थात सुख के दो निवाले पाने का स्थान एक छोटा सा होटल जो उनकी हैसियत के हिसाब से पेट भरने के लिए काफी है . कैसी विडम्बना है एक समय था जब उनकी आवभगत में पूरा परिवार लगा रहता था।
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लघु कथा - 2


दो बोल प्रेम के
बहु के पीछे-पीछे घूमते सुभद्रा कई दिनों से देख रही थी, वह धीरे-धीरे बहु को न जाने क्या कहती. कुछ इस तरह जैसे कोई छोटी बच्ची अपनी माँ से कुछ चाहती हो. आखिर क्या बात हो सकती है? सबकुछ तो है इनके पास, पति की पेंशन मिलती है, वक़्त पर खाना, सोना सारी सुविधाएँ हैं. आखिरी एक दिन मैंने सुन ली उनकी वह बात.। कह रही थी "मैं बहुत अकेली हूँ, ऐसा लगता है मुझे कुछ हो जायेगा, लेकिन जब तू मुझसे बात कर लेती है न तो मेरी सारी तकलीफ दूर हो जाती है, बहुत ख़ुशी मिलती है मुझे... तू माझ्या शी बोल न ग... बोल न...फ़क्त "दोन बोल प्रेमाचे"
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शनिवार, 4 मई 2013

जय हिन्द.... संध्या शर्मा

टूट चुका बाँध  
तबाही मची है
सब कुछ बह गया
कब तक सहोगे
अन्याय - अत्याचार
स्वाभिमान पर प्रहार
प्रतीक्षा कैसी??? 


पानी के बुलबुलों के आगे
तुम गंगा की जलधार
क्यों न तोड़ दो???
अपने धैर्य का बाँध
बह जाने दो टूटकर
एक बची-खुची सी
सिंद्धांत विहीन दीवार!!!!