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रविवार, 17 मार्च 2013

पहचान... संध्या शर्मा

मेरी ही आँखें
मेरे ही अक्स को
घूरती हैं
अनजान की तरह
वो कुछ शब्द
जो यकीं दिलाते
मुझे मेरे होने का
क्यों नहीं बोलती
कितना मुश्किल है
इनकी ख़ामोशी तोडना
तुम कहते हो
आसान है सब
सच कहूँ....
कुछ भी अजीब नहीं लगता
आदत सी हो गई है
कर भी क्या सकती हूँ
फिर भी कोशिश में हूँ
अपनी ही आँखों में
अपनी पहचान ढूंढ़ने की
याद दिला सकूँ
कौन हूँ ??
जानती हूँ
बदल गई हूँ ....

17 टिप्‍पणियां:

  1. .बहुत सुन्दर भावनात्मक प्रस्तुति आभार हाय रे .!..मोदी का दिमाग ................... .महिलाओं के लिए एक नयी सौगात आज ही जुड़ें WOMAN ABOUT MAN

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  2. अंतर्द्वंद्व , अपनी पहचान और मनोवैज्ञानिकता सब उभर आया है इस रचना में ....शिल्प भावानुकूल... !!!

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  3. सुन्दर प्रस्तुति!
    --
    दुःख और अनुराग की, होती कथा विचित्र।
    लेकिन हैं हर हाल में , ये दोनों ही मित्र।।
    --
    आपकी पोस्ट का लिंक आज के चर्चा मंच पर भी है!
    सादर सूचनार्थ!
    http://charchamanch.blogspot.in/2013/03/1187.html

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  4. एकदम सटीक और सार्थक प्रस्तुति आभार

    बहुत सुद्नर आभार अपने अपने अंतर मन भाव को शब्दों में ढाल दिया
    आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
    एक शाम तो उधार दो

    आप भी मेरे ब्लाग का अनुसरण करे

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  5. सब कुछ बदलने पर भी कुछ है जो नहीं बदलता..सुन्दर शब्द दिया है आपने..

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  6. कोशिश में हूँ
    अपनी ही आँखों में
    अपनी पहचान ढूंढ़ने की

    बहुत खूब

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  7. कभी कभी इंसान दूत जाता है ओर खुद को नहीं पहचानना चाहता ... पर जरूरी है साहस लाना ... खुद ही उठना ...

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  8. ओह ! मन का ये अंतर्द्वंद ...अपनी ही पहचान खुद में ढूँढना कितना पीड़ादायक है ...बहुत भावपूर्ण रचना ....
    एक नजर के इंतज़ार में ...स्याही के बूटे ....

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  9. अपनी आंखे अपने अक्स को घुरना आत्मा का परीक्षण करने जैसा है और ऐसा हर एक को होना चाहिए।
    drvtshinde.biogspot.com

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