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शनिवार, 12 जनवरी 2013

रोक सकोगे???... संध्या शर्मा

मेरे भीतर
आक्रोश की
उफनती
लहराती
फुंफकारती
धधकती
विकराल 
नदी है
रोक सकोगे???
सुना है
तुम...
समंदर हो

29 टिप्‍पणियां:

  1. वायु से तेज जिसकी गति हो, कौन रोक सकता है उसे ....

    बहुत ही सुन्दर भाव ....सचमुच कितनी भी उफनती नदी

    हो समंदर में समा जाना है उसे .....बधाई

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  2. गहन भावों का सम्प्रेषण ......! ललित जी ने कवितायें मस्त अंदाज में प्रस्तुत प्रस्तुत की हैं .....! मजा आ गया ....ऐसे प्रयास होने चाहिए ...!

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  3. कुछ आक्रोश समुद्र में भी हलचल मचा देते हैं !

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  4. गहन भाव. आक्रोश बहुत सशक्त हो सकता है.

    लोहड़ी, मकर संक्रांति और माघ बिहू की शुभकामनायें.

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  5. आत्मसात तो शायद फिर भी कर ले ... रोकना उसके बस में भी नहीं ...
    गहरे भाव लिए ...

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  6. कम से कम शब्दों में बहुत कुछ लिख दिया गया। नाइस संध्या।

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  7. भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने.....

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  8. kya bat hain
    chand lafzo mein bahut kuch kah diya aapane
    check my blog
    http://drivingwithpen.blogspot.in/

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  9. वाह , कुछ शब्दो मे कितना कुछ कह दिया ।
    बहुत खूबसूरत। मकर सक्रांति की शुभकामनायें

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  10. किसी के रोके न रुकेगा ये सैलाब अब ।

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  11. वाह.....
    समंदर की क्या औकात !!!

    बहुत बढ़िया
    सस्नेह
    अनु

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  12. बहुत खूबसूरत पंक्तियाँ . सुंदर प्रस्तुति
    वाह .बहुत सुन्दर

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  13. wahhh...Bahut khoobsurat Pnaktiya...
    http://ehsaasmere.blogspot.in/

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  14. वाह ... बहुत खूब कहा आपने ...

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  15. कुछ आक्रोश संवेदनशील पंक्तियाँ....

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  16. बहुत खूब,,,,
    जब आक्रोश चरम पर हो तो रोक पान नामुमकिन है ,,,,
    सुन्दर रचना !

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