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मंगलवार, 1 नवंबर 2011

बंद मुट्ठी.... संध्या शर्मा

बंद मुट्ठी में लिए बैठा है,
सपने, अपने और
और पीपल की घनी छाँव
नहीं समझे ना...
समझ भी नहीं सकोगे कभी
तुम्ही तो छोड़ आये थे
बेच आये थे उसे
अपनी सोने सी धरती
मिट्टी के मोल
नहीं तोड़ सका
नाता जीवन भर का
ना ही उसे भुला पाया
इसलिए अपना सब कुछ
मुट्ठी में समेट लाया....!

37 टिप्‍पणियां:

  1. अपनी सोने सी धरती
    मिट्टी के मोल
    नहीं तोड़ सका
    नाता जीवन भर का
    ना ही उसे भुला पाया

    इस नाते को भुलाना मुमकिन नहीं है।

    सादर

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  2. वाह ...बहुत बढि़या

    कल 02/11/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है।

    धन्यवाद!

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  3. अच्छी कविता , प्रसंसनीय बधाई

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  4. बहुत सुन्दर भावों से भरी पोस्ट.......पसंद आई|
    फुर्सत मिले तो हमारे ब्लॉग 'जज़्बात' पर भी नज़र डालें |

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  5. सुन्दर और गहन भाव लिए हुए अच्छी प्रस्तुति

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  6. नहीं तोड़ सका
    नाता जीवन भर का
    ना ही उसे भुला पाया
    इसलिए अपना सब कुछ
    मुट्ठी में समेट लाया....!

    बहुत खूब...गहन भावों की बहुत ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति..

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  7. बहुत खूब... भावों की बहुत ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति.. ..........बहुत ही सधे हुए शब्दों में आपने रचना को लिखा है .


    http/sapne-shashi.blogspot.com

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  8. भावों की बहुत ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति...बहुत बढि़या

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  9. सब कुछ मुट्ठी में समेट लाया...सुंदर भावों और शब्दों से सजी खुबशुरत रचना,बेहतरीन पोस्ट....

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  10. शानदार. वो रिश्ते ही क्या जो टूट जाये.

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  11. जीवन में यही रिश्ता सबसे गहरा लगता है ..... सुंदर रचना

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  12. गहन भावो को खूबसूरती से उकेरा है।

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  13. नहीं तोड़ सका
    नाता जीवन भर का
    ना ही उसे भुला पाया
    इसलिए अपना सब कुछ
    मुट्ठी में समेट लाया....!

    mitti ki mahak bhari sundar rachna..

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  14. मिट्टी से रिश्ता तोडा नहीं जाता ... न ही भुलाया जाता है ...

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  15. बिम्बों और प्रतीकों का खूबसूरती से प्रयोग किया है आपने......गहन भावों की अभिव्यक्ति..

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  16. गहन भावों की अभिव्यक्ति..

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  17. मिट्टी का रिस्ता तो मन में पैठ बनाकर रहता है, उसे कैसे् तोड़ सकते हैं।

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  18. आदरणीया संध्या जी
    सस्नेहाभिवादन !

    बहुत भावपूर्ण कविता के लिए आभार !
    बंद मुट्ठी में लिए बैठा है,
    सपने, अपने और
    और पीपल की घनी छांव


    इस प्रकार की रचनाओं का बहुत विस्तार संभव है …

    अपनी जड़ों , अपनी मिट्टी से हम कभी अलग नहीं हो सकते … इस पीड़ा को अपनी जन्म भूमि से दूर जा बसने वालों में अच्छी तरह महसूस किया जा सकता है …

    # मैंने स्वयं कई बार प्रवासी राजस्थानियों के सामने राजस्थानी में काव्य पाठ करते समय अपनी मातृ भाषा और मातृ भूमि को याद करते हुए कितनों की आंखों में पानी देखा है …

    बधाई और मंगलकामनाओं सहित…
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  19. आपको देवउठनी के पावन पर्व पर हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं !

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  20. बहुत अच्छी अभिव्यक्ति,भावपरक कविता !

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  21. नहीं समझे ना...
    समझ भी नहीं सकोगे कभी
    तुम्ही तो छोड़ आये थे
    बेच आये थे उसे
    अपनी सोने सी धरती.बहुत अच्छी अभिव्यक्ति.

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  22. गहरे भाव और अभिव्यक्ति के साथ लाजवाब रचना लिखा है आपने! बधाई!
    मेरे नये पोस्ट पर आपका स्वागत है-
    http://seawave-babli.blogspot.com/

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  23. सुन्दर और बार- बार पढ़ा ! समझाने की कोशिश जरी !बधाई

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  24. बहुत सुन्दर और बार- बार पढ़ने की जिज्ञासा जाग्रत हो रही है । मेर पोस्ट पर आप आमंत्रित हैं । धन्यवाद ।

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  25. अपनी मिटटी से कहीं गहरे जुड़े होने का
    अहम् अहसास
    और बहुत खूब अक्क़ासी...
    वाह !!

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