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सोमवार, 19 अगस्त 2019

कौना सी गुइयाँ सासरें, माई सावन आये

नव पल्लव झूम उठते हैं , डालियाँ बल खाने लगती हैं। दादुर , मोर , पपीहे सरगम छेड़ने लगते हैं तो लोकजीवन भला कैसे पीछे रह जाये।  क्यों न वह भी झूमे-नाचे और गाये। इसी मनभावन सावन के मौसम में मल्हार और झूलों के पींगों से रंग जाता है जन जीवन। निभाई जाती हैं परम्पराएँ।  छिड़ जाते हैं आल्हा के राग, कजरियाँ के गीत और गाने लगता है पूरा का पूरा बुंदेलखंड।  

सावनी बुंदेलखंडी परम्परा-
बुंदेलखंडी जीवन शैली प्रकृति के हर रूप - रंग से जुडी अनोखी जीवन शैली है । यहाँ हर त्यौहार , प्रकृति और लोक रंजन से जुड़ा होता है । सावन की कई परम्पराएं हैं जो  लोकजीवन के प्रकृति प्रेम, आपसी समन्वय और प्रेम को दर्शाती हैं। 

महिलाऐं और बालिकाएं मेहँदी के पेड़ से मेहँदी की पत्तियां तोड़ कर लाती हैं, उसे पीस कर एक -दूसरे की हथेली पर लगाती हैं, लोक मान्यता है कि जिस कन्या के हाथ में जितनी गहरी मेहँदी रचेगी उसे उतना ही सुन्दर पति मिलेगा। उन ताज़ी मेहंदी की पत्तियों से रची मेहंदी का रंग भी इतना सुन्दर होता था जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता और खुश्बू की तो बात ही अलग है। गाँव -मोहल्ले  में बच्चे चकरी , भौरा (लट्टू) चलाते, तो कोई बांसुरी की धुन छेड़ते और बालिकाएँ लाख के रंगबिरंगे या फिर पीले कनेर के फल से बने चपेटों से खेलते मिल जाती हैं।   
           लोक जीवन की इन परम्पराओं की समाप्ति के पीछे  का जो मुख्य कारण है वह आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में हम सब प्रकृति से अलग हो गए हैं । गाँव के घरो में लगे पेड़ कट गए , गाँव में लगे कुछेक वृक्ष किसी ना किसी की बपौती हो गए , उस पर उनके घर के लोगों के अलावा दूसरा  कोई जा नहीं सकता । इस तरह से झूला की परम्परा समाप्त हो गई । लट्टू और चकरी पहले गाँव का बढ़ई बना दिया करता था फिर बाजार में मिलने लगे अब वे भी नहीं मिलते । बांसुरी की तान बांस से बनी बांसुरी से ही आ सकती है , उसका स्थान प्लास्टिक ने ले लिया है। चपेटा जरूर खेला जाता है पर बहुत कम क्योंकि लोगों को अब टीवी से ही फुर्सत नहीं मिलती 

सावन के झूले -
वर्षा ऋतू  में जब चहुँ ओर हरियाली ही हरियाली हो तो ऐसा कोई नहीं जिसका मन प्रफुल्लित ना होगा। इस सावन की ऋतू में बुंदेलखंड के घर - घर में ऊँचे वृक्ष की डाल पर झूले डाले जाते थे ।  धीरे - धीरे ये झूले गाँव तक सिमट गए । अब किसी गांव में ही ये झूले और झूलों पर झूलती बालाएं देखने को मिल सकती हैं | सावन का महीना उल्लास और उमंग का महीना झूलों पर पेंग बढ़ाती नवयुवतियों के गीतों से झूम उठता -

झूला झूलन चलो ब्रजराज, बागान झूला डरे। 
कोयल डारन - डारन डोलत, मोर पपीहा पग-पग बोलत,
बहुत शीतल है जमुना की धार, बागन झूला डरे...... 
कहीं कुमारी और नवविवाहित युवतियाँ सुरीले कंठों से गा उठती हैं - 
एक चना दो देवली, माई, सावन आये। 
सावन के दिन चार रये, माई सावन आये?

अर्थात एक चने के दो टुकड़े जिन्हे देवली कहते हैं , उसी तरह भाई-बहन भी एक ही माता -पिता की संतान हैं, लेकिन दोनों की राहें अलग-अलग। एक माता-पिता के साथ है तो दूसरी ससुराल में।  परन्तु हमारा स्नेह शाश्वत है। अलग-अलग घर हो जाने पर भी हमारे मन एक हैं। सावन में भाई-बहन साथ रहेंगे। अब तो सावन के केवल कुछ ही दिन शेष रह गये हैं। 

कौना सी गुइयाँ सासरें, माई सावन आये,
'रूपा' सी गुइयाँ  सासरे, माई सावन आये। 
गीत में ही पूछती हैं कौन सी सहेलियाँ अभी तक ससुराल में हैं? सावन तो आ गया है।  आमतौर पर सभी विवाहित लड़कियों को ससुराल से मायके बुला लिया जाता है। इसलिए इन सहेलियों को सावन का झूला झूलते समय अपनी सभी सहेलियों की याद आती है, और आपस में पूछा जाता है कि कौन -कौन अब भी ससुराल में हैं।  उत्तर मिलता है कि रूपा सहेली अभी तक ससुराल में ही है। इसी तरह 'रूपा ' के स्थान पर, गाने वाली सहेलियाँ अपनी अन्य ऐसी सहेलियों के नाम जोड़ती जाती हैं जो उस समय तक मायके नहीं आ जाती।  

ऊँचे अटा  चढ़ हेरे बैना, मोरे भैया लिबऊआ आये। 
माई खों बिटिया बिसर गईं, बाबुल की गई सुध भूल। 
उपरोक्त लोकगीत की पंक्तियों में उस विवाहिता लड़की का चित्रण किया गया है जिसका भाई सावन निकट आने पर भी उसे लिबने नहीं पहुँच सका। उस नवविवाहिता के मन में इस कारण यह भावनाएं हिलोरें मार रही हैं -" ऊँची छत पर चढ़कर बहिन राह निहार रही है कि कब उसके भाई उसे लेने आ रहे हैं। माता शायद बेटी को भूल ही गई हैं और पिताजी को उसकी याद ही नहीं रही।"

जाय जो कैयो उन बैन के जेठ सें, तुमरे सारे छिके पैले पार। 
छिके - छिके  उनै रैन दो , उन सारे खों दियो लौटाय।   
भाई कहते हैं कि बहन के जेठ से जाकर कह दो कि तुम्हारे साले नदी के उस पार फंसे हुए हैं।  सावन का महीना है नदी में बाढ़ है बेचारा भाई बहन के घर कैसे आ पाता। लेकिन साले - बहनोई का मजाक भी जगजाहिर है। बहन के जेठ मजाक में कह देते हैं - साले जी छिक गए हैं तो उन्हें छिका  ही रहने दो। उन्हें वापस जाने दो। 

जाय  जो कइयो उन हमरे राजा से, अपने सारे कौन डेरा दिवाउ। 
सारण जौ बाँधो उड़न - बछेरा, घुल्लन टाँगो तरवार
बहन कहती है कि मेरे साजन से जाकर कह दो कि अपने सालों के ठहरने को यथास्थान व्यवस्था करवा दें।  घुड़साल में मेरे भैया का घोडा बँधवा दें और खूँटियों पर उनकी तलवार टँगवा दें। 

सुनो मेरी सासो, वीरन आये,
उनै कहा रचौं जेवनार ?    

भाई के ठहरने की उचित व्यवस्था हो जाने के बाद वह अपनी सास के पास जाकर उनसे पूछती है  कि मेरे भाई आ गए हैं। उनके लिए भोजन में क्या - क्या बनाऊँ ?

कजरियाँ (भुजरियां) 
सावन की समाप्ति के लगभव एक सप्ताह पूर्व बुंदेलखंड में कजरियाँ (भुजरियाँ ) बोई जाती हैं। गेहूं के दानो को पानी में भिगोकर छोटी-छोटी बांस की टोकनियों में मिट्टी और गोबर की खाद डालकर बोई जाती हैं, फिर इन्हें कजरियों तक ढंककर रखते हैं। कहा जाता है कि जितनी अच्छी बढ़त इन कजरियों की होती है उस वर्ष उतनी ही अच्छी अन्न की फसल होती है।
सावन पूर्णिमा के दूसरे दिन इन कजरियों को गाते बजाते बड़े ही धूमधाम से नदी या तालाब में प्रवाहित किया जाता है , तथा कुछ कजरियाँ बचाकर रख ली जाती है।  जिन्हे आपस में आदान प्रदान कर बड़े छोटों के कानो में खोंसकर आशीर्वाद देते हैं और छोटे बड़ों का चरण स्पर्श करते हैं। 

कजरियाँ के इस उत्सव में नर-नारी समान रूप से सम्मिलित होते हैं और अभिनय के साथ अनेक लोकगीत गाते हैं। नारियों का एक दल एक तरफ से गाता है -
साउन कजरियाँ जबई जे बैहें। 
अपनी बहन कौन ल्याव लिवाय। 
सावन में कजरियाँ तभी बोई जाएँगी , जब तुम अपनी बहिन को ससुराल से लिवा लाओगे।  नारी वात्सल्य की भावना का अत्यंत मार्मिक चित्रण है इस लोकगीत में। माँ चाहती है कि उसकी बेटी सावन में ससुराल से मायके आ जाये और इस उत्सव में सम्मिलित हो। 
यह सुनकर दूसरी ओर से पुरुषों का दल गा उठता है :
गऊवां पिसाव माई करो कलेवा ,
अपनी बहिन लिवावे जायँ। 
कहाँ बँधे मोरे उड़न बछेरा,
कहाँ टँगी तरवार ?  

सन् 1182 ई. का सावन अपनी सारी रंगीनी और चहल-पहल के साथ आया था। उसे मालूम था कि चंदेलों की राजधानी महोबा में उसकी जितनी अगवानी होती है, उतनी और कहीं नहीं। इसीलिए कारी बदरिया, रिमझिम मेह, दमकन् बिजुरी, सजी-धजी हरयारी, रचनू मेंहदी, नचत-बोलत मोर-पपीरा और तीज-त्यौहार-सब अपने-अपने करतब दिखाने लगे थे। अलमस्त पहाड़ और अलगरजी ताल दुर्ग की तरफ आँखें गड़ाये खड़े थे। शायद सावन की सौगातों की ललक से अलमस्त थे सभी। 
लेकिन अचानक इतनी ख़ामोशी छा गई। यहाँ तक कि दुर्ग की प्राचीरें चुपचाप खड़ी हुई। दिल्लीनरेश पृथ्वीराज चौहान ने महोबा का घेरा डाल दिया ! उसने चन्द्रावलि, महाराज परमर्दिदेव की राजकुमारी का डोला माँगा लिया। कविराज जगनिक आल्हा-ऊदल को लिवाने कन्नौज गए थे, पर अभी तक नहीं लौटे। महारानी माल्हनदे ने पत की पगिया सौंपने भेजा था उन्हें।
"पाग तक राजमाता के चरणों में रखने दे दी है चन्द्रा, फिर भी आल्हा-ऊदल नहीं आएँगे ? तू क्यों रोती है ? " माल्हनदे चन्द्रावलि को समझा नही थी और राजकुमारी बिलख-बिलखकर रो रही थी-"कजरियों के दौने मुरझा चले हैं माँ, राखी उदास पड़ी है। दिन चला गया, रात भी खिसक रही है... कब तक देखोगी ऊदल को....? " और ब्राहृजित ने आकर रोष में कहा-"बहिन, क्यों हठ करती है ? इतना बड़ा मदन सागर पड़ा है, सोने की नादें दूधों से भरी हैं...इन्हीं में कजरियाँ खौंट लो...दुर्ग से उतरकर युद्ध लड़ना मौत को बुलाना है... " चन्द्रावलि गरज उठी-"भइया, मौत से डरते हो, तो बैठो चुपचाप...हम तो कजरियाँ कीर्ति सागर में ही खौंटेंगी...लड़ ले चौहान...चन्द्रावलि का डोला मौत का डोला है...मौत का...। "
और पौ फटते ही महोबा के दुर्ग से नौ सौ डोले उतरे। हर डोले में दो वीरांगनाएँ, तलवार और कटारी के साथ एक-एक विष की पुड़िया लिये हुए और कजरियों के लहलहाते दोनों की रखवाली में मौत से जूझने को तैयार। पीछे रेंगती चंदेली सेना। रथ, हाथी, घोड़े और पैदल। चौहानों ने धावा बोल दिया। घमासान युद्ध।कीर्ति सरोवर की पार पर डोले छिके रहे। चंदेल सेना पीछे हटी और चन्द्रावलि का डोंला आगे बढ़ा। माल्हनदे ने इशारे से रोका। कठिन परीक्षा की घड़ी। चन्द्रावलि डोले से उतरी कि जोगियों की एक सेना चौहानों पर टूट पड़ी। बाजी पलट गई।
ऊदल से मिलते-जुलते एक योद्धा जोगी ने चन्द्रावलि से कहा-"बहिना, खौंटो कजरियाँ... " डोलों से युवतियाँ उतर पड़ीं। लाल-लाल सारीं और चोलीं पहने इन्द्रवधूटीं-सी रेंगीं। ऊपर घहराते बादल और नीचे खनकती तलवारें। बीच-बीच में दहाड़ें और कराहों के डरावने स्वर। कैसा अजीब दृश्य। बड़ी-बड़ी अँखियों में कजरारी नजरों से इधर-उधर टोह-सी लेतीं और सिर पर रखी कजरियों को सम्हालतीं युवतियाँ कजरी गीत गा उठीं। सरोवर के किनारे-किनारे मिठास बिखेरती हुई सी।
सबसे आगे थी चन्द्रावलि। उसने जल में दोना रखा कि पृथ्वीराज चौहान ने आकर भाले की नोक से उसे उठाना चाहा, पर उस जोगी की झपटती तलवार ने उसे दो टुकड़े कर दिया। दोनों लड़ते-लड़ते दूर चले गए। आखिर चौहान हार गए और कजरियाँ खोंटकर चन्द्रावलि ने जोगी बनेऊ दल की पाग में खोंस दीं। राजमार्ग के दोनों तरफ योद्धा खड़े थे, बीच में कजरियाँ देती जा रही थी युवतियाँ और यथोचित प्रेम एवं सम्मान अर्पण कर रहे थे पति, भाई, देवर और जेठ।

यह थी बारहवीं शती की एक ऐतिहासिक घटना, जिसने कजरियों के उत्सव को एक नया मान दिया है और लोकगीतों में आमूल परिवर्तन किया है। पहले कजरियाँ फसल और समृद्धि से जुड़ी थीं, पर इस प्रसंग से संबद्ध होकर भाई-बहिन के प्रेम की प्रतीक बन गई। यहाँ तक कि प्रेम और सद्भाव इतना आम हो गया कि अब कजरियाँ सभी के लिए भाईचारे का संदेश लेकर आती हैं और होली के रंग तथा दशहरे के पान की तरह भारतीय संस्कृति की विरासत बन गई हैं।


सावनी भेजने की परम्परा :_
 सावन के महीने में  बुंदेलखंड में सावनी भेजने की परम्परा भी है।  यह अब समाप्त सी हो गई है, इसका स्थान अब पैसों ने ले लिया है।  इस परम्परा में विवाहित महिला पहली बार जब सावन के महीने में अपने मायके जाती है । तब उसके पति के घर से  उसके भाई के लिए सोने -चांदी की राखी , कपडे , लकड़ी के खेल खिलौने, उपहार आदि भेजे जाते हैं । ससुराल से आई राखी ही बहिन अपने भाई की कलाई पर बांधती है। इसका बाकायदा गाँव के लोगों को निमंत्रण दिया जाता था, पड़ौसी - रिश्तेदार  आकर सावनी में आये सामान को देखते थे। अब सावनी के सामान के स्थान पर पैसा भेज दिया जाता है ।  
परम्परायें आपसी सम्बन्ध को मजबूत करने की एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं किन्तु आधुनिकता की होड़ में अब ये सिर्फ औपचारिकता बन कर रह गई हैं । 

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