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गुरुवार, 19 नवंबर 2015

लोकपर्व आंवला नवमी...

मारा भारत उत्सव एवं पर्वों का देश है। वैदिकपर्व, पौराणिकपर्व, लोकपर्व, राजकीयपर्व के साथ मनकीयपर्व भी मनाए जाते हैं। मनकीयपर्व से आशय है कि जब मन किया तब उत्सव मना लिया। इस तरह हम चाहे तो वर्ष के प्रत्येक दिन पर्व मना सकते हैं। इसे हमारी उत्सवधर्मिता ही कही जानी चाहिए। परन्तु हमारी संस्कृति में लोकपर्वों का अत्यधिक महत्व है, इन्हें मनाने के लिए किसी के द्वारा नियत तिथि को बाध्य नहीं किया जाता। ये लोक में रचे बसे हैं, हमारी परम्परा में सतत चले आ रहे हैं। 

इन्ही लोकपर्वों में से आज आंवला नवमी है, जिसे कार्तिक मास की शुक्लपक्ष की नवमी को मनाया जाता है। आंवला नवमी को अक्षय नवमी भी जाता है। लोक मान्यता है कि इस दिन द्वापर युग का प्रारंभ हुआ था। कहा जाता है कि आंवला भगवान विष्णु का पसंदीदा फल है। आंवले के वृक्ष में समस्त देवी-देवताओं का निवास होता है। इसलिए इस की पूजा करने का विशेष महत्व एवं फ़ल होता है। नाम से विदित है कि इस दिन आंवला वृक्ष की पूजा की जाती है तथा अखंड सौभाग्य की कामना से रात्रि भोजन आंवला वृक्ष के समीप ही किया जाता है जिससे आरोग्य व सुख की प्राप्ति होती है।

प्रत्येक लोकपर्वों के साथ कोई न कोई कहानी जुड़ी होती है, जो इन्हें लोकपर्व होने की मान्यता देती है। आंवला नवमी की भी एक कहानी है। कहते हैं कि काशी नगर में एक निःसन्तान धर्मात्मा तथा दानी वैश्य रहता था। एक दिन वैश्य की पत्नी से एक पड़ोसन बोली यदि तुम किसी पराए लड़के की बलि भैरव के नाम से चढ़ा दो तो तुम्हे पुत्र प्राप्त होगा। यह बात जब वैश्य को पता चली तो उसने अस्वीकार कर दिया। परन्तु उसकी पत्नी मौके की तलाश मे लगी रही। एक दिन एक कन्या को उसने कुएं में गिराकर भैरो देवता के नाम पर बलि दे दी इस हत्या का परिणाम विपरीत हुआ। लाभ की जगह उसके पूरे बदन में कोढ़ हो गया तथा लड़की की प्रेतात्मा उसे सताने लगी। वैश्य के पूछने पर उसकी पत्नी ने सारी बात बता दी। इस पर वैश्य कहने लगा गौवध, ब्राह्यण वध तथा बाल वध करने वाले के लिए इस संसार मे कहीं जगह नहीं है इसलिए तू गंगातट पर जाकर भगवान का भजन कर तथा गंगा में स्नान कर तभी तू इस कष्ट से छुटकारा पा सकती है।

वैश्य पत्नी गंगा किनारे रहने लगी कुछ दिन बाद गंगा माता वृद्धा का वेष धारण कर उसके पास आयी और बोली तू मथुरा जाकर कार्तिक नवमी का व्रत तथा आंवला वृक्ष की परिक्रमा कर तथा उसका पूजन कर। यह व्रत करने से तेरा यह कोढ़ दूर हो जाएगा। वृद्धा की बात मानकर वैश्य पत्नी अपने पति से आज्ञा लेकर मथुरा जाकर विधिपूर्वक आंवला का व्रत करने लगी। ऐसा करने से वह भगवान की कृपा से दिव्य शरीर वाली हो गई तथा उसे पुत्र प्राप्ति भी हुई। व्यापारी की पत्नी ने बड़े विधि विधान के साथ पूजा की और उसके शरीर के सभी कष्ट दूर हुये | उसे सुंदर शरीर प्राप्त हुआ | साथ ही उसे पुत्र की प्राप्ति भी हुई | तब ही से महिलायें संतान प्राप्ति की इच्छा से आँवला नवमी का व्रत रखती हैं |

इस तरह लोकपर्वों के केन्द्र में परिवार एवं परिजनों के सुख की कामना ही होती है।  स्त्री का सौभाग्य पति के साथ जुड़ा हुआ है। जो व्रत धारण करके पति के स्वास्थ्य की रक्षा के साथ स्वयं का सौभाग्य अखंड रखने की प्रार्थना दैवीय शक्तियों से की जाती है तथा इस त्यौहार में पर्यावरण के प्रति भी चेतना जागृत करने का संदेश निहित है। अगर हम वृक्षों की पूजा करेगें तो उन्हें नष्ट नहीं करेगें जिससे हमारा स्वास्थ्य एवं पर्यावरण मानव के रहने के लायक बनेगा। सभी को आंवला नवमी की शुभकामनाएं। वृक्ष लगाए, बचाएं और पर्यावरण को अक्षुण्ण रखें। 
संध्या शर्मा (नागपुर)

6 टिप्‍पणियां:

  1. आज के भौतिक युग में उत्सव मानव जीवन के लिए प्राणवायू का कार्य करते हैं। मनुष्य दुख: तकलीफ़ें भूल कर एक दिन उत्सव के नाम कर शारीरिक एवं मानसिक उर्जा का संचय करता है, जो उसके जीवन मार्ग के कंटक हटाने में सहायक होती है। मनुष्य को उर्जा देने का कार्य लोकपर्व ही करते हैं। जानकारी एवं तथ्यपरक आलेख के लिए बधाई, आंवला नवमी की शुभकामनाएं।

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  2. .सच हमारे पर्व एकसार जीवन में नयी ऊर्जा का संचरण करने में सक्षम है .....
    बहुत बढ़िया जानकारी प्रस्तुति हेतु धन्यवाद ..

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  3. ललित जी सहमत हूँ वाकई मनुष्य को उर्जा देने का कार्य लोकपर्व ही करते हैं बहुत ही बहुत बढ़िया जानकारी से भरी प्रस्तुति के आभार संध्या जी
    कई दिनों बाद आना हुआ आपके ब्लॉग पर

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  4. फेसबुक और ब्लॉग न हों तो शायद हम भूल ही जाएँ अपनी संस्कृति अपनी परम्पराएँ! हम लोग भी बनारस में आंवला के निकट बाटी-चोखा बनाकर खाया करते थे। ...बढ़िया लगी यह पोस्ट।

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  5. वृक्षों का महत्व और उनको जीवन में उचित स्थान देना हमारे पूर्वज उच्छी तरह जानते थे - इसीलिये वट,पीपल,आँवला और अनेक वृक्षों को इसी प्रकार लोक-जीवन से जोड़ दिया गया है .

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