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मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

आशा पल्लव...

याद है तुम्हें ...?
उस नन्हे पौधे को रोपत़े हुए
कितने विश्वास से कहा तुमने 
जब यह दरख्त बन जाएगा 
एैसे फूल खिलेंगे  
जिससे सुवासित हो जाएँगे 
हमारे मन और आत्मा 
उस दिन हम यहीं मिलेंगे
गूँथ दूँगा मैं फूलों को
तुम्हारे जूड़े में 
सुगंध से तृप्त हो जाएगी
सदियों से अतृप्त
दोनो की आत्मा
बाँध देगी हमे  
प्रेम की मज़बूत डोर से 
जिसे थामकर पहुँचना है 
हमे संग-संग चलकर
जीवन के उस छोर तक
जिसके आगे कुछ भी नही 
ख़त्म होगी जहाँ हर सीमा 
उस अंतहीन अनंत की ओर
जहाँ विखंडित हो जाते है अणु
अग्नि, जल, पृथ्वी, आकाश में 
पा लेते हैं अपना मूल स्वरूप 
जहाँ असंभव है हर भेद-विभेद
लो मैं तो आ पहुँची हूँ वहीं 
प्रतीक्षा है उस क्षण की
जब तुम आकर पूर्ण कर दोगे 
यह जीवन यात्रा गाथा .....

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