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पुरानी ज़िद...
अक्षर अक्षर
शब्द मेरे
जानती नहीं
कब हो गए
भाव तुम्हारे
इस सफ़र का
पता ही न चला
करने लगे हो
मेरे ही मन में
खूब मनमानी
और देखो न
इठलाती इतराती
अल्हड़ बच्ची सी
मैं आज भी
लगी रहती हूँ
तुमसे अपनी
हर बात मनवाने की
उसी पुरानी ज़िद में
नई नई ज़िद लेकर....
प्रीत पुरानी ही होती है...
जवाब देंहटाएंKya baat hai bht badhiya.....
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29-01-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1873 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
मन बच्चा ही रहे जब तक अच्छा है ... चाहे प्रीत मे ही सही ...
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंवसंत पंचमी
और वही जिद जिलाये भी रखता है . बहुत सुन्दर रचना..
जवाब देंहटाएंबहुत प्यारे और कोमल अहसास...बहुत सुन्दर रचना..
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना वाह..
जवाब देंहटाएंवाह...बेमिसाल रचना...
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