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सोमवार, 8 सितंबर 2014

सियासी छल…


बड़ी ताक़त रखती हैं 
कुछ आवाजें  
झकझोरने आत्मा को 
पर क्या करें इन दहाडों का 
क्या सामर्थ्य है इनमें 
समस्या निराकरण का?
क्या फर्क पड़ता है  …!
तुम हो किसी भी दल से 
हमें तो सरोकार हल से 
अगर ना दे सको तो 
व्यर्थ है तुम्हारे दावे 
सारे घोषणापत्र, मकसद  
कर सको तो इतना करो 
छींट दो अमृत इन पर 
कि तुम्हारे हाथों तृप्त हो 
पा जाएं जन जीवन 
वर्ना जाओ संभालो   
अपना प्रण, हमारा क्या 
हम तो मुर्दा हैं, जीते जी 
सो जाएंगे ओढ़कर कफ़न
आम ग्रामीण, शहरी
रोटी के संघर्ष के लिए ही
जन्म लेता है और मर जाता है…!

6 टिप्‍पणियां:

  1. आम आदमी का दर्द बहुत प्रभावी ढंग से उकेरा है...बहुत सुन्दर

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  2. हक़ीकत बयां करती सशक्‍त अभिव्‍यक्ति
    ......

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  3. उम्दा प्रस्तुति
    सही तो है रोटी के लिए ही तो होती है हर रोज मारामारी
    और सियासी कसमें वादे धरे के धरे रह जाते है

    रंगरूट

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