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रविवार, 6 अप्रैल 2014

धुंधकारी...



 
सोचो जरा  
उन्हें भी तो चाहिए 
उगते सूरज की
उजली किरणें 
शोषण से मुक्ति 
अपने बनते हो न 
चलो तुम्ही बताओ 
किस श्रेणी में रखूं तुम्हे
शोषक या शोषित 
कभी मौन होकर 
देखते हो उन्हें 
तिल-तिल जलते 
कभी घमंड बोलता है 
तो कभी काले फीते 
कभी सुनाई दे जाते 
लाल झंडे के गीत 
इन सब के बीच 
चुक जाती है
धीरे - धीरे...!!!
आम इंसान की
रेंगती सी ज़िंदगानी 
प्रश्न उठता है  ....
होगा क्या …?
शोषितों के हित में 
व्यवस्था परिवर्तन ??
व्यक्ति परिवर्तन??
या फिर से सुनाई देगा 
कुछ समय बाद 
वही पुराना राग 
जलने वाला जलेगा 
और जलाने वाला 
सरकाता रहेगा  
गीली लकड़ियाँ
धुंधकारी होकर ………

12 टिप्‍पणियां:

  1. आम आदमी कभी मुक्त नहीं हो सका शोषण के क्रूर पंजो से। वह मुक्ति के उजास की सुनहरी किरणे देखने के लिए ताकता रहा। कोई शक्तिमान आकर उसे शोषण से मुक्ति दिलाएगा। परन्तु झंडों एवं फ़ीतों के रंग बदल-बदल कर नए मुखौटे लगाए आने वाले शोषकों के छल का शिकार होता रहा। धुंधकारी भागवत की एक कथा का पात्र है, जो कुकर्मी और अधर्मी था। आज भी मानव कुकर्मियों एवं अधर्मियों के जाल से मुक्त नहीं हो सका। पर एक आस तो वह सदियों लगाए जी रहा है …… वह सुबह कभी तो आएगी। कविता के क्रांतिकारी भाव अन्याय एवं शोषण के विरुद्ध जागृति का आह्वान करते हैं। आभार

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  2. बहुत बढ़िया रचना......धुंधकारी के बारे में lalit जी की टिप्पणी से पता लगा !!
    बेहद सार्थक !!
    सस्नेह
    अनु

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  3. एक चक्रव्यूह सा रच गया है आम जनता के लिए , उसे तो ठगते ही जाना है !
    देखे अबके क्या रंग हो !

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  4. इन सब के बीच
    चुक जाती है
    धीरे - धीरे...!!!
    आम इंसान की..bilkul sahi sandhya jee ......kaun nijaat dilaayega sabhi ak hin thali ke chatte-batte hain ......marmsthal ko bhedti rachna ....

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