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शनिवार, 9 फ़रवरी 2013

मोड़.... संध्या शर्मा

सुना है नहीं रहेगा
गली के कोने का
बिजली का खंभा
जिससे टिककर खड़ी
अपलक निहारती थी माँ
ससुराल जाते हुए मुझे
जब तक गली का
मोड़ ना आ जाए
मैं अब भी देखती हूँ उसे
हर बार आते वक़्त
तब तक.....
जब तक!!
मोड़ ना आ जाये
जबकि अब माँ
उससे टिकी नहीं होती
आज जाने मुझे
क्यों ऐसा लग रहा है
जैसे मुझसे मेरा कोई
अपना बिछड़ रहा है
कितने खुश हैं लोग
रास्ते का...!
चौड़ीकरण हो रहा है....

16 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर......
    एकदम अलग से भाव....
    खम्भे की जगह अगर पेड़ का ज़िक्र होता तो????

    सस्नेह
    अनु

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  2. क्या बात है !

    इंतेजारी, माँ को बेटी की

    उनका खम्बे से सटना

    रास्ते का चौड़ीकरण

    खम्बे का हटना

    मातृ-प्रेम के वर्णन की

    सुन्दरता का क्या कहना ....

    संध्या जी! माँ सरस्वती की

    कृपा सदैव बनी रहे ....बधाई ...

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  3. कुछ यादें बस मन में सिमटी होती हैं .... सुंदर रचना

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  4. आज जाने मुझे
    क्यों ऐसा लग रहा है
    जैसे मुझसे मेरा कोई
    अपना बिछड़ रहा है
    कितने खुश हैं लोग
    रास्ते का...!
    चौड़ीकरण हो रहा है....


    राह भले चौड़ी हो रही हैं लेकिन आज दिल सिमटता जा रहा है और माँ की याद मिटने से दर्द होना स्वाभाविक है

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  5. जीवन ढूँढता है ऐसे पल ... ऐसे निशान ... ऐसे लम्हे जो जुड जाते हैं किसी के साथ ...
    मन को छूती हुई रचना ...

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  6. कुछ खोने का कुछ पाने का सिलसिला और यादें ....

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  7. मायके का बिजली का खंभा भी अपना सा लगता है..कोमल भाव..

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  8. विकास की बहती हुई ऐसी ही बयार है..

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  9. जैसे मुझसे मेरा कोई
    अपना बिछड़ रहा है
    कितने खुश हैं लोग
    रास्ते का...!
    चौड़ीकरण हो रहा है....
    ..... सही फ़रमाया आपने सराहनीय अभिव्यक्ति......संध्या जी

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  10. बिल्‍कुल सही कहा आपने ...भावमय करती प्रस्‍तुति।

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