यह कविता तो पुनः पोस्ट की है हमने, इसलिए इसे आप पहले भी पढ़ चुके हैं. अब सुनिए हमारी आवाज़ में :) (पहली बार कोशिश की है)
करती हूँ अभिनय
करती हूँ अभिनय
आती हूँ रंगमंच पर प्रतिदिन
भूमिका पूरी नहीं होती
हर बार ओढ़ती हूँ नया चरित्र
सजाती, संवारती हूँ
गढ़ती हूँ खुद को
रम जाती हूँ रज कर
कि खो जाये "मुझमे"
"मैं" कहीं....
अब तो हो गई है आदत
किरदार निभाने क़ी
हर आकार में ढल जाती हूँ
पानी सी.....
पहचान खोकर शायद
पा सकूँ खुद को
समंदर में सीप तो बहुत मिल जाते हैं
सीप में मोती हर किसी को नहीं मिलता.
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