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सोमवार, 28 मार्च 2011

आखिरी वक़्त मुस्कुराना है... संध्या शर्मा


जिंदगी ख्वाब है सजा के रखो,
उम्मीदों से भरा खजाना है.

तिनका तिनका भी काम आएगा,
उजड़े हुए घर को जब बसाना है.

शामिल हो जिसमें तेरी धड़कन भी,
मुझको वो गीत गुनगुनाना है.

दिल करता है उड़ा दूँ नींद तेरी,
पर तेरे ख्वाब में भी आना है.

गर फुर्सत मिले तो आ जाना,
राह में पलकें भी तो बिछाना है. 

रूठी किस्मत को मनाने के लिए,
उनसे अब रूठना मनाना है.

अपनी मुस्कुराहट बचाकर  रक्खी हैं,
आखिरी वक़्त मुस्कुराना है...   
      

मंगलवार, 22 मार्च 2011

चलो थोड़ा सो लें ............. संध्या शर्मा

उन्होंने शुरू किया 
अपना टेक्नीकल भाषण 
और समझाने लगे 
परमाणु ऊर्जा का महत्त्व
सारे नेता होने लगे
झपकी लेने में व्यस्त
जैसे - जैसे विषय गहराने लगा
उनकी नींद भी गहराने लगी
आखिर ये 
निश्चिंतता भरी नींद
आती क्यों नहीं?
जैतापुर को 
सुनामी से खतरा  हो न हो
वो अच्छी तरह से जानते हैं
इससे उनकी कुर्सी को
कोई खतरा नहीं
भारत के परमाणु संयंत्रों की
सुरक्षा की बात पर
वो टेंशन क्यों लें
गद्दी पर खतरा नहीं
तो वे क्यों जागें
तो चलो थोड़ा सो लें.... 

गुरुवार, 17 मार्च 2011

"होली"........ संध्या शर्मा

डाल-डाल टेसू खिले, आ गया मधुमास,
फाल्गुन आया झूम के, ऋतू बसंत के साथ.

रंग अबीर से हो गया, अम्बर देखो लाल,
चूनर भीगी देख के, हुए गुलाबी गाल.



कोयल कुहू-कुहू कर रही, आम रहे बौराय,
रंग पिया की प्रीत का, मेरे मन को भाये.

 सिमट रहे है दायरे, अपने हो गए दूर,
अब होली - होली कहाँ, केवल है दस्तूर.



टूटे दिल न जुड़ सके, चले न मिलकर संग,
फिर कैसा किसके लिए, होली का हुडदंग.



इस बौछार में घोल दो, छल कपट और रंज,
रिश्तों में चलते नहीं, झूठे खेल प्रपंच.

होली प्रेम प्रतीक है, भावनाओं का मेल,
हिलमिल कर ही खेलिए, रंगों का यह खेल.

शब्द हमारे कर सकें, खुशियों की बौछार,
तभी सार्थक अपने लिए, होली का त्यौहार....

सोमवार, 14 मार्च 2011

"कल अपनी भी बारी है" ........ संध्या शर्मा



धरे रह गए साधन सारे,
नाकाम तकनीकें सारी हैं.

क्यों रोना अब देख तबाही,
जब खुद ही की तैयारी है. 


कुदरत के कानून के आगे,
क्या औकात हमारी है.

ऋषि मुनियों की तपोस्थली,
ये भारतभूमि न्यारी है.

शायद उनका पुण्यप्रताप ही,
अपने कर्मों पर भारी है.

थमा नहीं ये कहर देख लो,
वह तो अब भी जारी है.

संभल सको तो संभलो वर्ना,
कल अपनी भी बारी है...

हाँ कल अपनी भी बारी है.....  

गुरुवार, 10 मार्च 2011

"स्वरचना "
कविता को नहीं,
स्वयं को रचती हूँ,
एक नए रंग में,
एक नए कोण से,
एक नए भाव में,

और...
इसी कोशिश में,
मन के किसी हिस्से को,
छूकर लौट आती हूँ,
जहाँ से चली थी,
वहीँ पर...

तो कभी ले आती हूँ,
स्मृति को,
एक रचनात्मक रूप देकर,
और बिखेर देती हूँ,
इन कोरे पन्नो पर...

यूँ ही...
एक चक्र सा,
चलता रहता है,
स्वरचना का,
अनवरत, निरंतर,
सोचती हूँ...
कहीं ये रचना,
अधूरी न लगे खुद को,
इसलिए  गढती रहती हूँ,
स्वयं को स्वयं के भीतर...  
                          "संध्या शर्मा"     


  

शनिवार, 5 मार्च 2011

"देहाभिमान"

इस  मायावी संसार में 
मनुष्य भौतिक सुखों की चाह 
और
बंधन मुक्ति की कामना करता है
भौतिक सुख और 
आत्मिक शांति के द्वंदों के बीच
फंसे इंसान को 
मौत से डर लगता है
इस उधेड़ बुन में 
वह भूल जाता है, स्वयं.....
अपने अस्तित्व को
कि वह शरीर नहीं !
आत्मा है...
मन और बुद्धि
जिस पर इन्सान इतराता है
भूलकर अपने मूल को
वह आत्मा से अलग नहीं
मन और बुद्धि...
यह योग्यता है आत्मा की
और उसे रहता हमेशा देह का भान
अर्थात "देहाभिमान" 
                                   संध्या शर्मा